वसंत ऋतु के आगमन के साथ ही झारखण्ड के आदिवासी समाज में विभिन्न पर्व-त्योहार का दौर शुरु हो जाता है। संताल में बाहा,मुण्डा में बात परब उरांव में सरहुल और हो समाज में मांगे इत्यादि महत्वपूर्ण है। वास्तव में झारखण्ड की संस्कृति प्रकृतिवादी है।इनकी मान्यताओं में प्राकृतिक वस्तुओं या उपादानों को विशेष महत्व मिला है। जो व्यक्ति के जीवन के रुपों का परिचायक है। यही वजह है कि यहां के सारे मुख्य त्योहार प्रकृति के ही इशारों पर आधारित और संचालित है। आप यह भी कहा सकते हैं, यहां के आदिवासी प्रकृति के संरक्षक है, प्रकृति के उपासक व पूजक भी है।सभी सामाजिक अनुष्ठान सरल है। और व्यक्तिगत न होकर सामूहिक होती हैं। इनके सारे देवी-देवताओं साल,सखुआ, कर्म या अन्य वृक्षों में रहते हैं। जंगल से इनका संबंध इसलिए अटूट है। बाहा एक ऐसा ही प्रकृतिवादी संताल समुदाय का पर्व है। जो प्रकृति और मानवीय संवेदना विचारों के संतुलन को रेखांकित करती है। संताली मिथक काथाकार के अनुसार इस पर्व का सीधा संबंध प्राकृतिक संरक्षक से है। अर्थात जीवन के लिए प्रकृति पर ही आश्रित रहना । संताल बाहा बड़ी धूमधाम से मनाते हैं । बाहा बोंगा अर्थात फागुन माह के पंचावे दिन से शुरू होती है। बाहा का अर्थ है फूल अर्थात जीवन में फूल की तरह ही खुशियों और मानवीय मूल्यों लाने वाले उत्सव । बसंत ऋतु में जब जंगल के वृक्षों में नई-नवेली पत्तियां और फूलों से लद जाते हैं। जिससे चारों ओर हरियाली ही हरियाली नजर आने लगती है। इस दृश्यों को देखकर लोग झूम उठते हैं। तीन दिन तक चलने वाले इस उत्सव में पहले दिन तिकि- सोवोद्और उम-नाड़का की प्रक्रिया पूरी की जाती है। ठीक दुसरे महिलाएं गैज- गुरिज रस्म पूरी करती है। वहीं युवा वर्ग समूह। बनाकर जाहेरथान की साफ-सफाई और मरम्मत करने में जुट जाते हैं। जिससे संताली में बोंगा कोवाक उम-नाड़का और जाहेर साढिम दालोव कहा जाता है। सागुन सुपाड़ी कलश की स्थापना अविवाहित युवक द्वारा की जाती है। जहां पंच महान् प्रकृति प्रदत्त शक्तियों जाहेर एरा,माराङ बुरु, लीटा गोंसाई, मोड़ें को और तुरुय को व पूर्वजों की स्थापना की जाती है। नायके बाबा अर्थात गांव की पूरोहित व्रत रखते हैं। तीसरे दिन गांव के सभी नर-नारियों परम्परागत परिधान से सज-धज कर बाहा अनुष्ठान में शामिल होने के लिए आंकड़ा में एकत्रित होते हैं। और आखड़ा में नायके बाबा का नृत्य मंडली के साथ उल्लास व गौरवमय वातावरण में स्वागत किया जाता है। और परमपरागत नृत्य एवं शोभायात्रा के साथ पवित्र स्थल जाहेरथान की ओर प्रस्थान करते हैं। यहां नामके बाबा जाहेर आयो,माराङ बुंरु, लीटा गोंसाई,ओर मोड़ को - तुरुयको की पूजा में प्रकृति के नये फूल सारजोम बाहा मातकोम गेले अर्थात सखुआ का फूल को अनकी वेदी या खण्ड में अर्पित करते हैं, और आराधना करते हैं- से देवी-देवताओं और पूर्वज, आज हम लोगों का एक वर्ष ओर बीत गया। इस वर्ष भी हम लोगों को प्रेम-भाव एवं सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में रहने दें। हमारी कार्य क्षमता व कुशलता में किसी भी प्रकार की कमी न आए, हमारे पशुधन में वृद्धि हो, उचित वृष्टि हो और प्रकृति की हरियाली बनी रहे। साल के वृक्षों मु खूब फूल और फल लगे, यही आप कामनाएं करते हैं। जाहेरथान में पूजा अर्चना के पश्चात् नायके बाबा सभी आगंतुकों को अपने हाथों से देवी-देवताओं की आशीष के स्वरूप सखुआ के फूल वितरित करते हैं।और नये साल की शुभकामनाएं देते हैं। महिलाएं सखुआ के फूल से अपने बालों को सजाती हैं। वहीं पुरुष फूलों को कानों में लगते हैं। सामूहिक पूजा अर्चना सम्पन होने के पश्चात् पुनः जाहेरथान से से नायके बाबा को शोभायात्रा के साथ आखड़ा की ओर गमन करते हैं। उसके पश्चात पूरा समुदाय सामूहिक रुप में मांदर और नगाड़े की थाप पर अगड़ा में नृत्य-संगीत किया जाता है। यहां बता दें, कि संतालों का नया साल बाहा पर्व के साथ ही शुरू होती है। वास्तव में,बाहा जीवन में खुशियों व उमंग का प्रतीक है। शिक्षाविद वह संताली साहित्यकार पद्श्री प्रो. दिगम्बर हांसदा इस पर्व के महत्व का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा है कि प्रकृति को नजदीक से जानने व समझने का अवसर है बाहा पर्व। यह प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में खुशियों और ऊर्जा प्रदान करने वाला यह पर्व संतुलनवादी अवधारणा का प्रतीक है ।
कालीदास मुर्मू , संपादक, आदिवासी परिचर्चा ।
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