सन् 1855 का संताल हुल भारतीय उपमहाद्वीप का प्रसिद्ध घटना है। इतिहासकारों ने इससे भारत का पहला जन संग्राम माना है। इस घटना ने 1857 ई॰ के ऐतिहासिक जनविद्रोह की पृष्ठभूमि रचना की। परन्तु, ब्रिटिश विरोधी इस हुल की व्यापकता को सिर्फ संतालों का विद्रोह कहाकर इसके प्रभाव और विस्तार की इतिहासकारों ने उपेक्षा की। वास्तव में यह संतालों के नेतृत्व में होने वाले भारतीय जनमानस का पहला संगठित जन विरोध था। इस संताल हुल से जुड़े ब्रिटिश दस्तावेजों में दर्जन भर से ज्यादा लोगों के नाम मिलते हैं, जिन्हें संताल हुल के प्रमुख आरोपी के बतौर सजा मिली ।
हुल कोई आकस्मिक ढंग से हुआ विद्रोह नहीं था। यह एक संगठित युद्ध , जो बगैर स्थानीय समुदायों के सहयोग के संचालित नहीं किया जा सकता था, इस कारण से सन् 1855 से 1865 ई॰ तक रूक रूक कर चला था। इस आन्दोलन के अगुआई करने वाले सिदो-कान्हू द्वारा महाजन, शोषकों तथा अंग्रेजों के खिलाफ हुल यानी क्रांति का आगाज किया जाना भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में लड़ाई की वह मिसाल है, जिससे अंग्रेजी हुकूमत को यह स्वीकार करना पड़ा कि यहां के आदिवासियों विशेषकर संतालों पर शासन करना आसान नहीं है। 1855-56 ई॰ की यह क्रांति भले ही स्वतंत्रता संग्राम का पहला विद्रोह का दर्जा नहीं ले सकी, लेकिन वास्तविकता यह है कि संतालों ने अंग्रेजों के शोषण के खिलाफ सिपाही विद्रोह से पहले ही राष्ट्रीय आंदोलन की नींव रखी थी। सिदो-कान्हू की आंदोलन मात्रा महाजनों, शोषकों,एंव अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ एक आंदोलन नहीं था, वल्कि यह हुल सामाजिक, संस्कृतिक विरासतों को बचने के लिए किया गया था। यही कारण था,कि अंग्रेजों ने इस आन्दोलन की समीक्षा की तथा इनके सामाजिक, संस्कृतिक, धरोहर की रक्षार्थ कानून व अधिनियम बनाने पर मजबुर हुए। अंग्रेजी हुकूमत द्वारा सबसे पहले जो नियम बनाए गए जिससे यूलस रूल्स कहा गया। इसका वास्तविक नाम संताल पुलिस रूल्स था, और इससे 29 दिसंबर 1856 ई॰ में लागू किया गया था। यूलस रूल्स ही सबसे मूल और महत्वपूर्ण बात यही थी, कि पहली बार संतालो की सामाजिक व्यवस्था को कानूनी मान्यता दी गई। ग्रामीण समुदाय के प्रबंथ की पुरी जिम्मेदारी माझी को दी गई, पुलिस व नौकरशाही का हस्तक्षेप कम किया गया। इसके पश्चात् क्रमशः ए॰डब्लयू कासागेंट का प्रवंध,परगाना पुरस्कार फण्ड, ग्रामीण पुलिस रेगुलेशन, संताल परगाना इनक्वायरी कमिटी व संताल परगाना काश्तकारी अधिनियम बनाया गया था। सिदो-कान्हू का हुल हो या बिरसा का उलगुलान सबके पीछे सामाजिक, सांस्कृतिक धरोहर को बचाने की विचारधारा शामिल है। यह सामाजिक, परंपरा एंव सांस्कृतिक विरासत जो भूमि व प्रकृति से संबंधित हैं। उसकी रक्षा ही एक मात्र उद्देश्य है। आदिवासी की सामाजिक व्यवस्था प्ररांभ से ही प्रजातंत्रिक ढांचे की रही है। भ्रष्टाचार और शोषण को बर्दाश्त नहीं करना तथा प्रजातंत्रिक ,समता मूलक, सह अस्तित्व को बनाए रखना आदिवासी समुदाय का मुलमंत्र रही है। सिदो-कान्हू, बिरसा,गणपत राय, शेखर भिखारी ,टाना भगत के आंदोलन में यही विचारधारा में साफ झलक दिखाई पड़ती है।
इस प्रकार लम्बे अरसे से(1855-1947) निरंतर संघर्ष के पश्चात 15 नंबर 2000 में बिरसा मुंडा के जन्म दिवस पर झारखण्ड राज्य का निर्माण हुआ। जिसमें झारखण्डी या आदिवासी सपनों को साकार करने का एक आधार मिला। लेकिन जिन उद्देश्य को लेकर इस धरती पर सिदो-कान्हू, व बिरसा ने उलगुलान किया तथा झारखण्ड आंदोलनकारियों ने अलग राज्य की लड़ाई लड़ी, कुर्बानी दी वे उद्देश्य हासिये पर चले गए। पूंजीवाद व्यवस्था हावी होने लगी। सामाजिक संस्कृतिक विरासतों व सामाजिक-आर्थिक, धार्मिक आस्था, अस्तित्व समाप्त होने के कगार पर हैं। हमें जरूरत है, इन सारी विषयों पर गम्भीरता से विचार-विमर्श कर झारखण्ड नव निर्माण में हमारी भागीदारी सुनिश्चित करने की आवश्यकता है। क्या इस बात पर भी परिचर्चा की जानी चाहिए कि संताल हुल की तरह क्या और एक हुल की जरूरत नहीं है? परन्तु यह जरूरी है, कि आदिवासी सामाजिक धार्मिक व्यवस्था, आर्थिक स्थिति एवं सांस्कृतिक विरासत को सहेजने के लिए और एक हुल के लिए तैयार रहने की ज़रूरत है।
कालीदास मुर्मू,: संपादक, आदिवासी परिचर्चा ।
2 Comments
अंग्रेज मुंह की जुबान से नहीं भागा है,बल्कि आदिवासी विद्रोह की डर से भागा है। अंग्रेज से तो आजादी मिला ,पर यहां के गैर आदिवासी लोगों ने आदिवासीयों को अंग्रेजों से भी बदतर गुलाम बनाकर रखा है। अंग्रेजों ने आदिवासीयों को जो हक दिया था वो भी अब छीना गया है । अब तो कोई भी आदिवासी अपने हक मांगने के लिए सड़क पर उतरते हैं तो किसी साजिश के तहत फंसाया जाता है। झारखंड राज्य तो नाम मात्र ही मिला है । अब तो कुछ आदिवासी, गैरआदिवासीयों के जाल में ऐसे फंसे हैं कि अपने हक मांगने को भी भूल जाते हैं। समाज में ऐसे लोगों को चिन्हित कर ही हूल करना चाहिए ।
ReplyDeleteNice....
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