वैकल्पिक आदिवासी इतिहास की खोज

 

आदिवासी जीवन के संबंध में अध्ययन मुख्यत: ब्रिटिश काल से शुरू हुआ। आदिवासी क्षेत्रों एवं वहां बसे लोगों के बारे में जरूरी तथ्यों की संग्रह प्रशासनिक दृष्टि से महत्वपूर्ण था। इसी उद्देश्य से एसियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल एवं फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना कलकत्ते में की गई। आदिवासी विषयक ब्रिटिश कालीन रचनाएं क्षेत्रीय शोधो पर आधारित थी। यद्यपि यह ज्ञान का भंडार अतुलनीय एवं आज भी गवेषको के लिए अमूल्य धरोहर है, पर साधारणतः प्रशासनिक उद्देश्य से संग्रह किये गये थे। तथ्य अर्थपूर्ण एंव पूर्वाग्रह से ग्रस्त थे। सवभावता औपनिवेशिक दृष्टिकोण से निर्मित इस ज्ञान को स्वाधीनोत्तर काल में चुनौती देते हुए इतिहास की राष्ट्रीयतावादी व्याख्या की परंपरा शुरू हुई। फलत: आदिवासी प्रतिरोध विशेषतः सिद्ध-कान्हू एंव विरसा मुंडा के ऐतिहासिक आंदोलन को भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास में जगह मिली। बाद में चर्चा ने डाक्टर जे. सी. झा को कोल इनसरेकशन एंव डॉ कुमार सुरेश सिंह को डस्ट एण्ड हैंगिंग मिस्ट लिखने के लिए प्ररेति किया। विद्वत समाज ने स्वीकारा कि आदिवासी इतिहास अत्यंत ही  रोचक एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अंर्तविषयक अनेक महत्वपूर्ण शोध हुए। आदिवासी इतिहास लेखन की अपनी कोई स्वतंत्र स्थान नहीं थी। अंग्रेजी काल हो अथवा स्वाधीनोत्तर काल यह वृहत्तर भारतीय इतिहास का एक अध्याय मात्र रहा, उदाहरण के तौर पर ब्रिटिश विरोधी  आदिवासी संग्राम पर शोध प्रांरभिक उद्देश्य 1857-1858 के महाविद्रोह के सर्व  भारतीय चरित्र को स्थापित करना ही था, न कि स्वतंत्र रूप से आदिवासी आंदोलन का अध्ययन। 

ब्रिटिश कालीन दलीलों के अध्ययन से ऐसी ही धारणा बनती है। पर इसके विपरीत यदि हम प्राक-ब्रिटिश युग की छानबीन करे, जिस पर सूत्रात्मक रुप से कुछ तथ्य हमें ब्रिटिश कालीन स्त्रोतों से मिलते है। तो एक अन्य तस्वीर सामने उभरती है। ये तथ्य उस अतीत की ओर संकेत करते हैं। जब अपनी स्वतंत्र पहचान बनाय रखने के लिए आदिवासी समूहों ने पहाड़ी जंगलों से भरे क्षेत्र को चुना, अपनी सामाजिक संरचना बनाती एवं अपने रीति-रिवाजों के आधार पर उदात्त प्राकृतिक परिवेश में अन्य के साथ तथा एक सौहार्द्रपूर्ण जीवन जिया। उपनिवेशिक काल एवं स्वतंत्र से पहले की समय मृतप्राय: जीवन- शैली से भिन्न उनका जीवन-छंद सहज, सरल एवं प्राणवंत था। पर हमारा दुर्भाग्य है ,इस सृजनात्मक समय का आख्यान इतिहासकारों के द्वारा रचित नहीं हो सका। यदि ऐसा हुआ तो न केवल एक धारावाहिक आदिवासी इतिहास की रचना होती बल्कि प्राक एंव स्वाधीनोत्तर काल के शोध अधिक तथ्य परक होते हैं।

आधुनिक एंव उत्तर आधुनिक युगीन आदिवासी इतिहास लेखन इस सम्राज्यवादी मानसिकता से किस तरह प्रभावित हुआ इसे जानना आज अधिक प्रांसगिक है।  ब्रिटिशकालीन दस्तावेजों के अनुसार उनके साथ प्रथम साक्षात् समय आदिवासी समाज जंगल पहाड़ों  में बसा एक प्राक राज्ययी  एवं प्राक कृषक समाज था, जो मुख्यत शिकार निर्भर बंजारा जीवन जीता था। सत्य यह है कि शिकार निर्भरता अनिवार्य नहीं थी, क्योंकि सभ्यता के अनेक आयामों जैसे कृषि कार्य एंव सुशासित ग्रामीण व्यवस्था के विकास के कुछ प्रमाण हमें ब्रिटिश कालीन स्त्रोतों में ही मिलते हैं,पर इनपर अंग्रेजों ने ध्यान नहीं दिया। 

शोध की यह प्रक्रिया निस्संदेह रुप से औपनिवेशिक है, जिसमें भौतिक प्रगति को महज़ ब्रिटिश कालीन घटना के रुप में दर्शाया जाता है। अन्य दुःख पक्ष यह है कि अभी भी विद्वानों के लिए आदिवासी इतिहास अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जंगली तथा तीर धनुष से लेस आदिवासीयों के संग्राम का इतिहास मात्र है। निस्संदेह यह जुझारुपन आदिवासी इतिहास को ही नहीं बल्कि संपूर्ण इतिहास को भी गौरवान्वित करता है। परन्तु दो बातों पर आपत्ति जताना अनुचित नहीं होगा। पहली कुछ महान व्यक्तित्व ही इतिहास बनाते हैं,इस विश्वास के कारण आज तक इनकी भूमिका पर ही ज्यादा आलोकपात किया जाता रहा। इनका अहम योगदान सराहनीय जरुर था, पर अधिक सही बात यह थी कि आदिवासी आंदोलन मुख्यत: एक सामाजिक प्रतिवाद था। जिसने महानायकों के योगदान को ऐतिहासिक बनाया, इनके साथ साथ यह आज आवश्यक है,कि अनेक स्थानीय एंव क्षेत्रीय नेतृत्व को इसमें संपूर्ण समाज के योगदान के संबंध में हमेशा जानकारी मिल सके और यह चर्चा सही मायने में, जैसे कि ' पाॅल टाॅमसन' ने आग्रह किया, गणतंत्रिक बन सके आखिर इतिहास समाज के योगदान को जानने की एक बौद्धिक क्रिया ही है।

कालीदास मुर्मू, संपादक, आदिवासी परिचर्चा ।











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