प्रकृति की गोद में वसा संतालों के धार्मिक आस्था का प्रतीक लुगुबुरु घंटाबाड़ी धोरोमगढ।

 

ऊंची-ऊंची पहाड़ियों और उनमें गिरती नदियां, वनों की हरियाली और उनमें फैले फूलों की लाली। इन वनों में विचरते वन्य जीवों व पेड़ों पर पक्षियों का कलरव निस्संदेह यह प्राकृतिक का यह दृश्य झारखण्ड में ही देखने को मिलती है। प्रकृति के इस मनोरम सुन्दरता में संताल समाज का एक महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल लुगुबुरु घंटाबाड़ी धोरोमगढ अवस्थित है। यह राज्य की राजधानी राॅची से लगभग 85 किलोमीटर दूर बोकारो जिला के गोमिया प्रखण्ड अन्तर्गत ललपनिया गांव में अवस्थित है। यह झारखण्ड की दुसरी सबसे बड़ी पहाड़ी श्रृंखला है। जिसमें छोटे -छोटे सात चोटियों को पार करने के पश्चात् लुगुबाबा की गुफ़ा मिलती है। इस गुफा तक पहुंचने के लिए पहाड़ों के रास्ते लगभग 10-12 किलोमीटर की चढ़ाई तय करनी पड़ती है। यही गुफा संताल आदिवासी के धार्मिक आस्था का केंद्र "लुगुबाबा की गर्भ गृह " है। यहां प्रतिवर्ष कार्तिक में लाखों श्रद्धालुओं का हुजूम उमड़ पड़ती है। वज़ह आदि धर्म गुरु लुगुबाबा धाम में पहुंच कर पूजा-पाठ करना और लुगुबाबा का आशीर्वाद प्राप्त करना है। यहां भारत के विभिन्न राज्यों जैसे- बिहार, उड़ीसा,पशिचम बंगाल ,असम, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, मेघालय एवं भूटान, बंगला देश ,मेलेशिया व इंडोनेशिया आदि देशों से से लाखों की संख्या में श्रद्धालु आस्था से वशीभूत होकर चले आते है। यहां भगवान की कोई मुर्ति नहीं है वल्कि एक गुफा है। गुफाओं के अन्दर चट्टानी पत्थर को पूजते है।यह इस बात का रेखांकित करती है कि आदिवासी प्रकृति पूजक है। यह हिन्दू धर्म और सरना धर्म की अलगावपन को स्पष्टीकरण करती है। सरना धर्म प्रकृतिवादी विचारों से प्रेरित है। संताली पौराणिक कथाओं के अनुसार सरना धर्म की उत्पत्ति सखुआ ( सरजोम) नामक वृक्ष पर तीर (सार) लगने से हुई है। सरना का अर्थ (सरि.ना) सत्य है। सरना प्रकृति के सत्यता पर आधारित है। इस धर्म में आस्था रखने वाले लोगों निराकार सृष्टिकर्ता व पालनकर्ता की उपासना करते हैं। इस धर्म के अनुयाई सत्य का आचरण करते है। और सत्य का साथ देते है। 


आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व लुगुबाबा इस पहाड़ी से सटे गांव में रहते थे। उनका अधिकांश समय पहाड़ों की गुफाओं में चिंतन-मनन करने करने में ही व्यतीत होता था। उन्होंने उस समय के बिखरे संताल समाज को सुदृढ़ बनाने के उद्देश्य से मांझी-परगना तथा समाज के सम्पन्न व्यक्ति की बैठक आहूत की। जिससे तत्कालीन इतिहासकारों ने लुगुबुरू धोऱ़ोमगाढ़ दोरबार चट्टानी के नाम से सम्बोधित किया था। यह बैठक बारह दिन तक दिन-रात चली । बैठक में संताल समाज के रीति-रिवाजों, पर्व-त्यौहार व जन्म-मृत्यु सम्बंधी लेक से लेकर आचरणों पर विस्तृत चर्चा हुई।लुगुबाबा की अध्यक्षता में आयोजित इस उन सभी रीति-रिवाजों के विसंगतियों को दूर करते हुए लाने की अथक प्रयास किया गया था। तथा उनमें एकरुपता का स्वरुप प्रदान किया गया। सन 1910 ई॰ में अंग्रेजों के समय सर्वे सेटेलमेंट में इस पहाड़ी श्रृंखला का लुगुबुरु रखा गया था। कार्तिक  पूर्णिमा के दिन लुगुबाबा धाम में पूजा-अर्चना करने के पश्चात तीसरे पहर दरबार चट्टानी में धर्म सभा का आयोजन होता है। संस्कृतिक कार्यक्रम में विभिन्न इलाकों के संस्कृति का संगम देखने को मिलता है। मांझी-परगना एंव प्रतिष्ठित जनों की बैठक में समाज में फैली कुरीतियों एंव भिन्नताएं पर चर्चा होती है। और उन्हें दूर करने का प्रयास किया जाता है।  हम सभी संतालों का कर्तव्य बनता है कि आदि धर्म गुरु लुगुबाबा के बताए मार्ग में चलकर समाज को मजबूत , सुदृढ़ और उन्नत बनये। लुगुबाबा ने हम संतालों को एक विशाल सरना धर्म गृह प्रदान किया है।उसे अक्षुण्ण बनाए रखना हमारा परम कर्तव्य है। 

 कालीदास मुर्मू , संपादक,आदिवासी परिचर्चा।  

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