भारत के आदिवासियों का धार्मिक पहचान एंव आस्था का प्रतीक है सरना। ।


 इतिहासकारों का मानना है कि सभ्यता की वर्तमान स्वरूप एकाएक विकसित नहीं हुई, वल्कि  उसमें युगयुगांतर  में  क्रमिक विकास की अवस्था से होकर  गुजरा है। भारत में अनेक ऐसी विशिष्ट स्थल है, जहां इसके प्रमाण मिले है । जिसमें हड़प्पा, महोनोजोदड़ो ,कालीबांगा प्रमुख है। यहां के भित्ति चित्रों में प्रकृति के साथ संस्कृति के घनिष्ठता को दर्शाती है। आदिवासी समाज प्रकृति के सानिध्य में रहने वाला समुदाय है। इसलिए संभवतः अपने आदिम रुप में प्रकृति को प्रसन्न रखने के लिए विभिन्न पर्व-त्यौहार और अनुष्ठानों में आवश्यकतानुसार प्रकृति को ही देवी-देवताओं की रुप में पूजा की जाती है। भारत में निवास करने वाले आदिवासीयों का प्रकृति के प्रति आस्था व विश्वास वैसे ही है जैसे विश्व के अन्य हिस्सों में रहने वाले आदिवासियों का है। विश्व के परिप्रेक्ष्य में आदिवासियों का अध्ययन करने से यह स्पष्ट होता है कि वैश्वीकरण के इस दौर में आदिवासियों की पहचान व अस्तित्व खतरे में है। इस आलेख में हम भारत के आदिवासियों का धार्मिक-सांस्कृतिक महत्व और उनके चुनौतियों पर चर्चा करेंगे। भारतीय जनगणना के अनुसार कुल जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत (10 करोड़ ) आदिवासियों का है। जो स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही धार्मिक पहचान के लिए निरंतर संघर्षरत है। ब्रिटिश भारत का प्रथम जनगणना। 1871 से पता चलता है कि उस वक्त जनगणना में आदिवासियों के लिए अलग धार्मिक काॅलम का प्रावधान था। विभिन्न नामों के साथ यह काॅलम 1951 तक  चली। जैसे  Census of British India 1871 में  Aborgines, 1881 में Aborginal, 1891 में Aministic,1901 में 1911,1921 में Aminist,  1931 ई॰ में Tribal Religion, 1941ई॰ मेंTribal तथा 1951 ई॰ Tribal or Aminist  अंकित थे। आजादी के ठीक बाद से ही आदिवासियों का धार्मिक पहचान की संकट उत्पन्न होने लगी। भारत में रहने वाले सभी आदिवासियों ने अपने-अपने स्तर पर सामाजिक संगठनों के माध्यम से धार्मिक पहचान व अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्षरत है। इस संदर्भ में  झारखण्ड सरकार ने 11 नवम्बर 2020को केविनेट की बैठक में सरना धर्म कोड की मांग को अनुशंसा करते हुए केन्द्रीय सरकार  को भेजने का ऐतिहासिक  फैसला लिया है। आईय सरना धर्म क्या है ? इसके बारे विस्तृत चर्चा करेंगे। सरना धर्म मुलत: प्रकृतिवादी विचारों से प्रेरित है। अर्थात्  ब्रह्मांड की सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता व  नियंत्रणकर्ता के आसपास केन्द्रित वह सभी मिमांसा से सृजित अवधारणा है। जिसमें सिर्फ और सिर्फ निराकार व अदृश्य शक्ति की  नियमित  पूजा-अर्चना एंव उपासना की  जाती है।  पृथ्वी की परिक्रमा और गति पर सभी पर्व उत्सव इस परिधि में सिमटी हुई है। संक्षेप में हम सकते है कि सभ्यता के प्ररांभिक काल में इन अद्भुत व अदृश्य शक्ति की समझ व परख करने  की क्षमता  आदिवासियोंस थे। इस कारण से  सिन्धु घाटी सभ्यता में विकसित हुए नगरों में निराकार देवी-देवताओं की पूजा की जाती थी।  वह पेड़-पौधे ,पत्थर, जल, पृथ्वी, वायु व आकाश आदि के रुप में  उस अदृश्य शक्ति की पूजा करने लगे। यह सिलसिला लम्बे समय तक जारी रहा है और आज भी अनावरत रुप से चल रही है।  परन्तु जब सम्पूर्ण विश्व में पुनर्जागरण व औद्दोगिक क्रांति की दौर शुरू हुई, तब जंगल काटने लगे, आदिवासियों की कस्बे व ज़मीन छिने जाने लगी,उस दौर से आदिवासियों की पहचान व अस्तित्व में गहरा संकट आने लगी, जो आज भी  जारी है। भारत के आदिवासियों का धार्मिक पहचान सरना ही सर्वमान्य है। यह मतभेद हो सकते है, पर  इसमें  आम  सहमति बनाने पर विचार करना उचित होगा। जो सर्व सम्मति से पारित हो।  दूसरी पहलू  यह भी महत्वपूर्ण है कि आदिवासियों के धार्मिक पहचान या धर्म कोड नहीं होने से इसमें समाहित समुदाय को भारी आर्थिक नुक्सान हो सकते हैं। रोजगार व शिक्षा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने के लिए अलग धर्म कोड अति आवश्यक है। मान्यता न मिलने से संविधान के अनुच्छेद 25-28 की अवमान्य होगी। जो नागरिक की मौलिक अधिकार एंव  धार्मिक स्वतंत्रता अधिकार का हनन होगी।यह मेरा व्यक्तिगत विचार है।


कालीदास मुर्मू, सम्पादक, आदिवासी परिचर्चा




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