ब्रिटिश सरकार में अलग झारखण्ड प्रांत की नींव रखने वाले पहले आदिवासी थे ठेबले उरांव


झारखण्ड की मिट्टी में अनाम कई ऐसे महापुरुष  हुए, जिनके बारे में या तो बहुत कम जानकारी है अथवा लोग इनके  बारे में अनभिज्ञ  हैं।  इन  कारणों से  आज के  युवा  पीढ़ी  भी  इन महापुरुषों के योगदान के बारे में जानते तक नहीं। झारखण्ड के इन्हीं महापुरुषों में ठेबले उरांव का नाम भी आता है। जिनके योगदान को झारखंड की धरती भूल नहीं सकती। वे एक ऐसे व्यक्तित्व थे। जिनके बारे में रांची से लेकर दिल्ली तक चर्चा की जाती थी। मुलत: ठेबले उरांव, झारखण्ड के उरांव जनजाति समुदाय से आते हैं। ठेबले उरांव झारखण्ड की मिट्टी, इनकी परंपराओं, भाषा और संस्कृति से प्रेम करने और इसे संरक्षण करने के लिए किए जानेवाले प्रयासों के लिए जाने जाते हैं। जिस दौर में  आदिवासियों में जागरूकता की कमी थी, उसी दौरान ठेबले ने राज्य की संस्कृति और यहां के लोगों में एक नयी जान फूंकी और छोटानागपुर और संताल परगना क्षेत्र के लिए ब्रिटिश सरकार के समक्ष अपनी मांग रखी थी। भारत  की आजादी के बाद भी उनका योगदान यह रहा कि देश में बन रही सरकार में उनको  प्रतिनिधित्व करने के लिए बुलाया गया। उनका जन्म रांची के रातू में साल1863 ई० में हुआ। पिता खेती किसानी का काम करते हैं। बचपन से ही उन्होंने किसानों और आदिवासियों के साथ ह़ो शोषण को करीब से देखा और महसूस किया था। वे आदिवासियों के हो रहे जुल्मों- सितम से नाखुश रहते थे। उनके मन में हमेशा यह धारणा थी कि अगर आदिवासियों के इलाके में वे खुद राजपाट चलाए, तो उनकी सारी समस्या का समाधान हो सकता है। शायद इसी वजह से उनके मन में झारखण्ड अलग प्रांत की अवधारणा पैदा हुई। ब्रिटिश भारत में जब छोटानागपुर उन्नति समाज का गठन किया गया, तो ठेबले उरांव को सर्वसम्मति से इसका पहला संस्थापक अध्यक्ष बनाया गया था। इस संगठन के लोगों ने झारखण्ड अलग राज्य की मांग जोर-शोर से उठायी थी। बंगाल का जब अंग्रेजों ने विभाजन किया। तो झारखण्ड के लोगों को भी अपनी मांगें मनवाने के लिए यह अवसर मुफीद लगा था।  जब अलग राज्य की मांग जोर पकड़ने लगी थी और यहां के लोगों को इसके लिए जागरूक किया जा रहा था। टेबलेट उरांव अकेले गैर-ईसाई थे। जो अपनी मांग के समर्थन में अधिकारियों के समक्ष अपना पक्ष जोरदार ढंग से अपना तर्क रखकर लोगों को चकित कर देते थे। लोग उनके तर्क शक्ति के कायल थे। जब साइमान कमीशन भारत आया था। ठेबले और उनके साथियों ने निर्णय लिया कि साइमन कमीशन के सामने अपनी मांगों को रखने का यही सही अवसर है, और ऐसा ही हुआ। सामान कमीशन के सामने छोटानागपुर उन्नति समाज ने झारखण्ड अलग के लिए ज्ञापन सौंपा और यहां के लोगों की भावनाओं से अवगत करवाया गया। देश की आजादी के बाद 1952 ई० तक देश की अंतरिम सरकार में प्रतिष्ठित सदस्य के तौर पर उन्होंने अपना योगदान दिया था। झारखण्ड के अलावा आसपास के इलाकों में भी उन्होंने आदिवासी समुदाय के हित के लिए काम किया। आदिवासी समाज में उस वक्त शिक्षा का घोर अभाव था। ठेबले का मानना था कि शिक्षा हासिल कर आदिवासी समाज उन्नति का रास्ता हासिल कर सकता है, और देश की विकास में महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है। अतएव उन्होंने आदिवासियों से शिक्षा हासिल करने की अपील की । देश के आजादी के बाद रांची काॅलेज और बीआईटी जैसे शिक्षण संस्थानों के अलावा राजेंद्र मेडिकल कॉलेज की स्थापना में भी उनके योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता। जब ठेबवे ने अंतरिम सरकार में लोकसभा में अपनी मातृभाषा कुडुख में भाषण दिया था। इससे आदिवासी की भाषा को एक नया सम्मान मिली और यहां के लोगों की छाती गर्व से चौड़ी हो गयी थी। इस महान पुरुष की मृत्यु बर्ष 1958 ई० को हुई थी। लेकिन आदिवासियों के लिए किए गए उनके प्रयासों ने उनको अमरत्व प्रदान किया है। झारखण्ड के इतिहास में ठेबले उरांव के योगदान को जानने-समझने वालों के लिए झारखण्ड अलग राज्य की स्थापना के दिन अवश्य ही यह विचार पैदा हुआ होगा कि काश, ठेबले उरांव इस शुभ दिवस को देखने के लिए जिंदा होते। 

कालीदास मुर्मू, सम्पादक, आदिवासी परिचर्चा।







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1 Comments

  1. ऐसे छुपी हुई महान व्यक्ति की अवदान को लोगों के सामने रखने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद !
    जय ठेबले उरांव ! अमर रहे ! अमर रहे!

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