सुर्खियों में : क्या 2021के जनगणना में आदिवासियों के लिए अलग सरना धर्म काॅलम होगा ?

 


इन दिनों पुरे देश में कृषि कानून के विरोध में  किसानों के संगठन का जोरदार आंदोलन चल रहा है। किसान देश के अन्न दाता हैं, उनकी समस्याएं या जो मांगें है, इस पर केंद्रीय सरकार किसानों के पक्ष में  सकारात्मकता पहल कर समस्याओं को निराकरण करने का उपाय ढूंढे जाने चाहिए। हालांकि इस मुद्दे पर सरकार और किसान मोर्चा के बीच बातचीत ज़ारी है। परन्तु संतोषजनक नतीजा आने में और वक्त लग सकता है। वहीं दूसरी ओर आदिवासी बहुल राज्यों में जैसे झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा,विहार, मध्यप्रदेश व राजस्थान  में सरना धर्म कोड की मांग को लेकर सुर्खियों में है। विशेषकर झारखण्ड, पश्चिम बंगाल व उड़ीसा में विभिन्न सामाजिक व धार्मिक संगठनों के द्वारा सरना धर्म कोड के पक्ष जनसभाएं आयोजित की जा रही है। बता दें,कि विगत वर्ष 11 नवम्बर झारखण्ड के हेमंत सोरेन सरकार सरना धर्म कोड की पक्ष में एक प्रास्ताव अनुशंसा कर केंद्रीय सरकार को भेजकर ऐतिहासिक फैसला किया है। जिससे आदिवासी बहुल राज्यों में सरना धर्म कोड पर भूचाल ला दी है। पर सचाई तो यह है, कि क्या केंद्रीय सरकार 2021के जनगणना में आदिवासियों के लिए अलग धर्म काॅलम आवंटित करने  पर विचार कर सकती है या असहजता महसूस कर सकती हैं। भाजपा अगुवाई हिंदूवादी नीयत केंद्रीय सरकार की अलग एजेंडा है, जिसमें आरएसएस एंव उनकी अनुषंगी शाखाओं के  विचारधारा से प्रेरित है। इसके अन्य पहलुओं यह है कि देश के अनेक ऐसी आदिवासी नेता है, जो इस विचारधारा से अभिभूत होकर अपने मुल आस्तित्व को खो चुके है। वे अपने को हिन्दू कहलाने में तनिक भी संदेह नहीं करते हैं। इस मुद्दे का दुसरा पक्ष यह भी है, लम्बे समय से आंदोलित धर्म कोड की दास्तावेज जो जनगणना आयोग के पास संंग्रहित है, उन आंकड़ों का अध्ययन व विश्लेषण करने पर पाया गया कि विभिन्न सामाजिक  व धार्मिक संगठनों के द्वारा प्राप्त प्रास्ताव में आदिवासी प्रकृति पूजक तो है, पर धर्म को लेकर स्पष्ट उल्लेख नहीं है। सरना धर्म कोड न मिलने का यह बहुत बड़ी भूल हो सकती है। अर्थात् हम आदिवासी धर्म व अस्तित्व का मांग तो कर रहे है, लेकिन चिंताजनक  विषय यह है, हम एक विशेष धर्म कोड के नाम  सहमति नहीं बना पा रहे है। जिससे यह मामला ओर गम्भीर रूप ले रहा है। यह सिर्फ कुछ के आदिवासी के नहीं, वल्कि पुरे देश की आदिवासियों का मुद्दा है। अतः पर एक नाम आम सहमति होना अतिआवश्यक है। अन्यथा हम इस अस्तित्व की  से चुक भी सकते है। इन सब के भी हमें  इसके साकारात्मक पक्ष की ओर तेजी से आगे बढ़ना चाहिए जो आदिवासी समुदाय के हित में हो।



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