झारखंड के प्रमुख त्योहारों में एक है टुसू। आपसी सद्भावना के इस पर्व में संगीत की प्रधानता होती है। इस पर्व को झारखंड में काफी धूमधाम से मनाया जाता है। विशेषकर पंचपरगना इलाकों में हर ओर जश्न का माहौल डूसू की पहचान बन गई है। टुसू को मोहल्ले अथवा गांव में एक निश्चित प्रतिमा के रूप में स्थापित किया जाता है। शाम को युवतियां एक निश्चित स्थान पर एकत्रित होकर टुसू के नृत्य और संगीत जाती है। इसके लिए विशेष रूप से मेले का आयोजन किया जाता है।
क्या है टुसू पर्व मनाने की परंपरा:- मान्यता के अनुसार 201 गरीब कुर्मी कृषक की सुंदरी कन्या थी। उसकी सुंदरता की चर्चा धीरे-धीरे संपूर्ण राज्य में फैल गई थी। चर्चा तत्कालीन क्रूर राजा के दरबार तक भी जा पहुंची थी। राजा ने टुसू को पाने के लिए रणनीति बनाई। उस वर्ष राज्य में भीषण अकाल पड़ा था। किसान लगान देने की हालत में नहीं थे। इसका फायदा उठाते हुए हैं राजा ने लगान दोगुना कर दिया तथा जबरन वसूली शुरू कर दी। राज्य के कृषक इससे परेशानी में पड़ गए।राजा ने आतंक से निपटने के लिए टुसू किसानों का संगठन बनाकर आगे आई। राजा के सैनिकों और किसानों की सेना के बीच युद्ध हुआ। इस युद्ध में हजारों किसान मरे गए। किसानों को हार मानना पड़ा, लेकिन टुसू गिरफ्त में नहीं आई और उसने उफनती नदी में कूदकर अपनी जान दे दी। इस तरह वह शहीद हो गई। टुसू का पर्व उस साहसी युवती की कुर्बानी की याद में मनाया जाता है। टुसू की प्रतिमा का नदी में विसर्जन कर एक तरफ से समाज उसे अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करती है।
टुसू संपन्नता का प्रतीक :- टुसू पर्व कृषकों के घरों में संपन्नता का प्रतीक है। इस पर्व के साथ कई सामाजिक परंपराएं जुड़ी है, जिसके कारण सामाजिक एवं संस्कृति दृष्टिकोण से टुसू पर्व का महत्व है। एक शक्ति स्त्री के रूप में भी टुसू की पूजा अर्चना की जाती है। यह पर्व पौष माह भर मनाया जाता है और मां के अंतिम दिन मकर संक्रांति को विसर्जित किया जाता है। कृषक खेत खलियान का कार्य समाप्त करने के बाद इस पर्व को मनाते हैं। जिसके कारण इस पर्व को "पूस परब" भी कहा जाता है। पर्व पर विशेष रुप से तैयार किए गए पीठा को"पूस पीठा" कहा जाता है।
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