संताल हूल के नायक और देश के पहले स्वतंत्रता आंदोलन के प्रणेता सिद्धो-कान्हू के वंशज का कहना है कि भूख से मर जाएंगे, पर कभी भी जमीन नहीं बेजेंगे, इसी के लिए तो हूल का आगाज हुआ था 30जून 1855 ई॰ को. आइए हम हूल दिवस के 166वीं बर्ष गांठ पर इसे समझने का प्रयास करें। असल में संताल शांतिप्रिय ,विनम्र व प्रकृतिवादी लोंग हैं. इनका मुख्य पेशा कृषि और आखेट हुआ करता था. सर्वविदित है कि संतालों के अपनी अपनी प्रजातांत्रिक समाजिक स्वशासन व्यवस्था है. इस व्यवस्था में किसी भी प्रकार की हस्तक्षेप इन्हें बर्दाश्त नहीं है. अंग्रेजों ने स्थानीय जमींदारों और महाजनों से मिलकर संतालों पर शोषण और अत्याचार करने लगे. अंग्रेजों द्वारा इनके व्यवस्था पर छेड़छाड़ करना महंगा पड़ा. विरोध में अपनी भाषा, संस्कृति, जमीन और पारंपरिक शासन व्यवस्था को जीवित रखने के लिए संतालों ने खुद को संगठित करना उचित समझा.वे अंग्रेजों की शोषण, उत्पीड़न, जमींदारों एंव महाजनों के अत्याचारों से मुक्त होने के लिए सिद्धो-कान्हू के अगुवाई में हुल की. इस क्रांति में सिद्धो-कान्हू, चांद-भैरव, फुलो- जानो के साथ- साथ हजारों युवक- युवतियों ने अपनी माटी के खातिर शहीद हो गए. जिससे भारतीय इतिहासकारों ने संतात विद्रोह के नाम से संबंधोन किया. इस आंदोलन की तीव्रता और गति को देखकर विश्व के ख्यातिप्राप्त चिंतक और इतिहासकार कार्ल मार्क्स ने संताल विद्रोह को भारत का प्रथम जन विद्रोह कहा है.
संताल हुल के तत्कालिक परिणाम: - एक सुदूरवर्ती इलाकों में घटित इस आंदोलन को अंग्रेजी हुकूमत ने साधारण तरीके से नहीं लिया वल्कि गम्भीरता से लेते हुए समीक्षा की. त्वरित कार्रवाई करते हुए तत्कालिक वायसराय लॉर्ड डलहौजी ने अपने क्षेत्रीय आधिकारियों को को नीतियों में बदलाव के स्पष्ट निर्देश दिए ताकि भविष्य में हुल जैसी विद्रोह की पुनरावृत्ति अंग्रेजी हुकूमत में दोबारा न हो. विद्रोह के तुरंत बाद गवर्नर जनरल ने इस क्षेत्र को अपने अधीन लेते हुए विशेष सुविधा उपलब्ध कराने के निर्मित दामिन-ए-कोह को अनुसूचित क्षेत्र के रूप में घोषित करना पड़ा. स्वशासन व्यवस्था पर बल देते हुए यूल्स रुल्स को 29 दिसंबर 1856 में लागू किया गया.यूल्स रूल्स की सबसे मूल और महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि पहली बार अंग्रेज़ हुकूमत के द्वारा संतालों की सामाजिक व्यवस्था को कानूनी मान्यता दी गई. इसके तहत गांवों के प्रबंध करने की पूरी जिम्मेदारी मांझी को दी गई. यह व्यवस्था बिना रुके तीन दशक तक चला. इससे संताल पुलिस रुल्स के नाम से जाना जाता था. सन् 1880 ई॰ में मांझी पारगाना की सामाजिक पदवी को कानूनी मान्यता मिली और गांव के मांझी को प्रोत्साहित करने के लिए पारगाना पुरस्कार फंड स्थापित किया गया था. ग्रामीण पुलिस रेगुलेशन 1910 बनीं. भूमि सुधार एवं राजस्व के लिए संताल परगना इन्क्वायरी कमिटी का सन् 1937 ई॰ तथा बाद के समय में अर्थात आज़ाद भारत में सन् 1949 ई॰ में संताल परगना काश्ताकारी अधिनियम बना. इस अधिनियम को संतालों के भाषा संस्कृति और स्वशासन व्यवस्था की सुरक्षा कवच भी कहा जाने लगे थे.
21वीं सदी के भोगनाडीह और सिद्धो-कान्हू वंशज:- संताल हूल के 166 बर्ष बीत गए पर भोगनाडीह में रहने वाले सिद्धो-कान्हू के आज भी समाज के मुख्यधारा से अलग है. इससे संयोग कहें या विडम्बना? . इनके वंशज का जीविका खेती और मजदूरी रह गई है. सिद्धो- कान्हू के वंशजों के बच्चों की शिक्षा भगवान भरोसे है. यह आप संयोग ही कहा जा सकता है, कि इस वंशज के सबसे अधिक मंडल मुर्मू है. जिसने 2016 में पाॅलिटेक्निक की पढ़ाई पूरी की हैं. अब वह नौकरी की तलाश में है.इनके अलाव वंशज में आठ लोग पढ़ें लिखे हैं, जो स्नातक भी नहीं है. इनमें से कुछ सदस्यों को तृतीय व चतुर्थ श्रेणी में नौकरी करते हैं. वंशज के सदस्यों में सवसे पहले सरकारी नौकरी करने वाले बड़ा भादों मुर्मू है. वर्तमान में साहेबगंज काॅलेज में चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी हैं.
1 Comments
Bahut achha site he adivasi ke liye mahatpurn he.
ReplyDelete