आदिवासी समुदाय की पहचान उनकी अस्मिता जल, जंगल, जमीन व भाषा से जुड़ी है. जब जब उनकी अस्मिता खतरे में आई है, आदिवासी समाज ने उसका डटकर मुकाबला किया है. अपने अस्मिता की रक्षा के लिए आदिवासी संघर्ष का इतिहास लगभग 250 वर्ष पुराना है. आधुनिक विकास की आंधी ने आदिवासी समाज के अस्तित्व को संकट में लाकर खड़ा कर दिया है.
इतिहास के पन्नों में देखे तो आदिवासी समाज के बीच संकट के बादल तब मंडराये जब अंग्रेजों ने उनके जल, जंगल, जमीन के अधिकारों को कानूनी जामा पहना कर अपने कब्जे में करने की कोशिश की. 1793 ईसवी में बनी स्थायी बंदोबस्ती कानून, 18 65 ईस्वी में बना रिजर्व फॉरेस्ट एक्ट, 18 सो 94 का भूमि अधिग्रहण कानून आदि. आजाद भारत के पश्चात 1951 ईसवी का इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट एंड रेगुलेशन एक्ट, 1957 ईसवी का कॉल व्यारिंग एक्ट एवं 1972 ईस्वी में बने वन्य जीव संरक्षण कानून आदिवासी समाज के सामने उनके जल, जंगल, जमीन से जुड़े आदिवासी अस्मिता को संकट में लाकर खड़ा किया है.
आदिवासी समाज शुरू से ही इन कानूनों का बिरहा करता आया है. तिलका मांझी से लेकर बिरसा उलगुलान तक कई ऐसे आंदोलन हुए, यहां आदिवासी समुदाय अपनी अस्मिता के लिए लगातार संघर्ष करता रहा, उपर्युक्त कानून के बनने के बाद आदिवासी समाज के सामने विस्थापन की भयावह स्थिति मुंह खोले खड़ी है. देश की स्वतंत्रता के बाद विकास के नाम पर नेहरू के सपनों को साकार करने के लिए बने कल कारखाने, नदी घाटी परियोजनाएं ने आदिवासियों को उनकी जमीन से बेदखल कर दिया. जमीन से अलग होते ही आदिवासी समुदाय के सामने संकट के बादल छाने लगे. इन विकास के परियोजनाएं से विस्थापित हुई है आदिवासी अपनी अस्मिता खो दर-दर की ठोकर खाने को मजबूर हो गए. आज वे कहां है? और दिनोंदिन इनकी घटती संख्या का आंकड़ा सरकार के पास नहीं है. यदि हम गैर सरकारी आंकड़ों पर गौर करें तो विकास की इस दौरा में लाखों आदिवासी शहीद हो गए. आज वे कहां है और किस हालत में है, इसकी सुध लेने वाला कोई नहीं है. इसके बाद भी सरकार की महत्वकांक्षी योजना आदिवासी समुदाय के बीच खोलें खड़ी है. कोयल करो परियोजना, ईचा- खरकाई बांध परियोजना,ओरंग बांध परियोजना, नेतारहाट फील्ड फायरिंग रेंज आदि से विस्थापन के खिलाफ संघर्षरत है आदिवासी. यदि आदिवासी समुदाय अपनी इन संघर्षों में विजय नहीं हुआ तो आदिवासी का अस्तित्व वह पहचान समाप्त हो जाएगा.
झारखंड बनने के बाद जिस तरह से बाहरी आबादी का इस राज्य में प्रवेश हुआ है. राज्य के आदिवासियों की संख्या में लगातार कमी सरकारी आंकड़ों के माध्यम से दिखाई जा रही है. आदिवासियों के नाम पर बने झारखंड में आज आदिवासी समुदाय आशिया पर खड़ा है. रोजी -रोटी, नौकरी व रोजगार आदि के लिए अपने ही राज्य में भटक रहे हैं. राज्य बने 20 वर्ष बीते गए फिर भी यह एक गंभीर मुद्दा बनी हुई है. इस पर आदिवासी समुदाय के बुद्धिजीवी, शिक्षाविद और सामाजिक कार्यकर्ता एवं झारखंड के हितैषियों को गंभीरता से विचार करना होगा.
कालीदास मुर्मू , संपादक, आदिवासी परिचर्चा।
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