क्या देश को पहला आदिवासी राष्ट्रपति मिलेगा !

 


आज़ादी के  पश्चात भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में ऐसा पहला अवसर है जब देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद राष्ट्रपति पर किसी आदिवासी महिलाओं को उम्मीदवार बनाया गया है. यह उम्मीदवारी भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार द्वारा तय किया गया. श्रीमती द्रौपदी मुर्मू बतौर झारखण्ड की प्रथम महिला राज्यपाल के रूप में 2015 से 2021 तक रही. इनकी उम्मीदवारी बनाए जाने  के साथ राष्ट्रपति चुनाव  में  विपक्ष में दरार हो है. क्योंकि बतौर विपक्ष की  साझा उम्मीदवारी की भूमिका में देश के पूर्व विदेश एवं वित्तमंत्री रह चुके श्री यशवंत सिन्हा है. यह सर्वविदित है कि द्रौपदी मुर्मू एक महिला आदिवासी हैं तथा झारखंड की पूर्व राज्यपाल भी रह चुकी है. एक  सरल और सहज आदिवासी महिला संघर्ष कर इस मुकाम तक पहुंचना बहुत ही कठिन कार्य है. देश की संसदीय लोकतंत्र व्यवस्था की यही खुबसूरती प्रणाली है, कि यह जानते हुए कि चुनाव में हार-जीत हो सकते हैं. फिर भी  इस आशय से चुनाव लड़ा जाता है कि जीत भी सकते हैं. इस खुबसूरती का नाजरा इस बार राष्ट्रपति चुनाव में देखा जा सकता है. देश के अगले राष्ट्रपति चुनने के लिए  संयुक्त रुप से विधायक एवं सांसदों द्वारा देश के विभिन्न हिस्सों में मतदान किया जा रहा है. मतदान के परिणाम से ही निर्णय होगा कि कौन बैठेंगे रायसीना हिल्स के राष्ट्रपति भवन पर एक संघर्षशील आदिवासी  महिला श्रीमती द्रौपदी मुर्मू या श्री यशवंत सिन्हा, ज्यूं तो आंकड़े बता रहे हैं,कि श्रीमती द्रौपदी मुर्मू का जीत निश्चित है. राष्ट्रपति चुनाव 2022 के लिए मतदाताओं के वोट की कुल वैल्यू 10,86,431 है. बीजेपी और उसके सहयोगियों के पास कुल वोट का करीब 48 फीसदी है जबकि विपक्ष के पास 52 फीसदी वोट. बीजेपी गठबंधन के पास 5,35,000 वोट तो यूपीए के पास दो लाख 59 हजार 892 और अन्य विपक्षी दलों के पास 2 लाख 92 हजार 894 वोट हैं. ऐसे में राष्ट्रपति चुनाव में सत्तापक्ष एनडीए से ज्यादा विपक्षी दलों के पास वोट है. राष्ट्रपति चुनाव में सत्तापक्ष एकजुट है तो विपक्ष बंटा हुआ.

ऐसे में यशवंत सिन्हा और मुर्मू में किसका पलड़ा भारी है? ये सवाल भी उठ रहे हैं कि कौन दल किसके साथ खड़ा है. अगर एनडीए उम्मीदवार श्रीमती द्रौपदी मुर्मू आदिवासी हैं. और यदि वह चुनाव जीतती है, तो देश में पहली और आजादी के बाद सर्वोच्च संवैधानिक पद पर पहुंचने वाली देश की पहली आदिवासी महिला बन जायेंगी. आज देश के 10 करोड़ से भी आदिवासी  इस उम्मीद की प्रतीक्षा में है, कि  देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में समान सहभागिता सुनिश्चित  संभव है. आदिवासियों को संयम एवं विश्वास रखना चाहिए कि बिना अपनी पहचान और परम्परा की तिलांजलि दिए एक आदिवासी महिला देश की सर्वोच्च पद पर पहुंच सकती है. यही हमारी लोकतंत्र की ताकत है.आगे बाढ़ने के लिए जिन आदिवासी परिवारों को भारी दबाव झेलना पड़ता है. और अपनी पहचान और परम्परा को त्याग करता है.आज उन सबके लिए बहुत बड़ी सबक है. श्रीमती मुर्मू की विजय का उन सब के लिए भी सिख मिलेगी जो विद्यालय और अस्पताल के सेवा के आड़ में आदिवासियों के समाज में भेद डाल रहे हैं.

कालीदास मुर्मू, संपादक, आदिवासी परिचर्चा।

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