सुदूर अतीत के समय से ही आदिवासियों में शासन की अपनी प्रणाली विकसित रही है और विविध कालखंडों में अनेक प्रशासनिक बदलाव के बावजूद झारखंड में आदिवासियों की अपनी परम परीक्षा शासन प्रणाली कायम रही है. इस लेख के माध्यम से झारखंड में निवास करने वाले द्वितीय सबसे बड़ी जनजाति मुंडाओं के पारंपरिक शासन व्यवस्थाओं पर प्रकाश डालेंगे.
सदियों से मुंडाओं ने अपनी विस्तृत सामाजिक आर्थिक एवं राजनीतिक संरचना बनाई है. जिससे उन्होंने क्रमबद्ध रूप से लिपिबद्ध भी किया है. वंश आधार पर सबसे बड़ा अपने कुनबे के लोगों का प्रधान होता है, जबकि मुंडारी गांव का प्रधान होता है. विधिवत् गांव के स्तर पर दो संगठन है, पड़हा व पट्टी, जो राजनीतिक एवं सामाजिक प्रकृति के हैं. दोनों में भिन्नता भी है. शरद चंद्र राय के अनुसार जहां पहड़ा मूल संगठन है, वही जेबी हाफमैन का मनना है कि पट्टी मूल है. पट्टी दरअसल मुंडाओं का क्षेत्र आधारित संगठन है. खूंटकटटी क्षेत्र को सर्कल में विभाजित किया गया है, जिससे पट्टी कहते हैं. पट्टी दस- बारह गांव का एक समूह होता है. जिसका मुखिया मानकी है. नागवंशी राजाओं के शासनकाल में पट्टी प्रणाली का विशेष ढंग से विकसित हुई. पड़हा कुल या गोत्र के आधार पर पहले हैं.खूंटकटटीदार के तहत जमीन के अधिकार के बाद के है. पट्टी क्योंकि क्षेत्र आधारित है, इसलिए इसके दायरे में हर कोई आता है, चाहे वह किसी वंश या गोत्र/किली का हो. जबकि पड़हा गोत्र का पर्याय जैसा है . पड़हा एक किली के हरेक व्यक्ति के जीवन से जुड़े मामले को देखरेख करता है. भले ही उसका क्षेत्र भिन्न हो. इस तरह किली को एक राजनीतिक संगठन के रूप में देख सकते हैं.किली का संस्थापक प्रधान को माना गया है और उसे राजा की पदवी दी गयी, जो वंशानुगत है.पड़हा के ज्यादा विशाल होने की स्थिति में इसे दो-तीन भागों में विभाजित करने का प्रावधान है. पड़हा का काम अपने किलीऔर आदिवासी समुदायों के हितों की रक्षा करना है. पड़ हा का जज " मागो" यानी " एक गोत्र में विवाह करने पर " जातिबोरा" अर्थात मुंडा का गैर मुंडा से विवाह जैसे सामाजिक आचरणों उल्लंघन करने पर सजा का भी प्रावधान है. वैसे तो पड़हा निर्णय लेने में स्वतंत्र है. पर पूरे समुदाय को प्रभावित करने वाले फैसले में उससे सर्वसम्मति प्राप्त करनी होती है.
संकलन, कालीदास मुर्मू, संपादक आदिवासी परिचर्चा।
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