आदिवासियों को बचाने के लिए सामूहिक आन्दोलन की जरूरत

 


आदिवासियों की संकट की स्थिति भारत में नहीं, वल्कि पूरे विश्व में एक समान है. आदिवासियों को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए हर जगह पूजीपतियों एवं साम्राज्यवादियों से संघर्ष करना पढ़ रहा है. आज जो भी आदिवासी बचे हुए हैं, वह केवल संघर्ष का ही परिणाम है. और अभी भी आदिवासी अपने को बचाने के लिए संघर्षरत है. जिस दिन आदिवासी संघर्ष करना और लड़ना छोड़ देंगे उसी दिन आदिवासी समाप्त हो जाएंगे. क्योंकि दुनिया का हर पूंजीपति और साम्राज्यवादी का अस्तित्व आदिवासियों के खून और लाश के ऊपर टिका हुआ है. विश्व के मानचित्र में " रेड इंडियन" आदिवासी समुदाय केवल नाम ही रह गया है. अमेरिका विश्व का शक्तिशाली देश इन्हीं लोगों की अस्तित्व को समाप्त कर आगे भौतिकवादी और साम्राज्यवाद का मौर्य बन गया है. कहीं हमारे भारत की स्थिति भी कुछ ऐसी ना बन जाए. यह एक गंभीर विषय है, जिस पर हमें सामुहिक मंथन करने की जरूरत है. 

आज जरूरत है, आदिवासियों के प्रति सकारात्मक सोच की. केंद्रीय सरकार हो या राज्य सरकार आदिवासियों के लिए एक व्यापक स्तर पर राष्ट्रीय आदिवासी विकास कार्यक्रम बनाने एवं उससे क्रियान्वयन की. हकीकत में देखा जाए तो आजादी के 75 वर्ष में भी इस समुदायका उन्नयन नहीं हुआ है, जितना आंकड़े बताते हैं. आदिवासी बहुल राज्यों के  सुदूरवर्ती इलाकों आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल आपूर्ति एवं सड़क जैसी मुलभूत सुविधाओं से वंचित है.  इन इलाकों के  बच्चों में कुपोषण जैसे गम्भीर मुद्दे चुनौती बनी हुई है.  यूनिसेफ कि एक सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर घंटे 189 बच्चे की मृत्यु कुपोषित के कारण हो रही है. रोजाना 4534 बच्चों की मौत हो रही है. 

झारखंड राज्य बनाने के बाद ऐसा प्रतित होने लगी कि अब आदिवासियों को उनका खोया हुआ आत्म सम्मान वापस मिलेगा. उनकी आर्थिक प्रगति होगी. शिक्षा, चिकित्सा, रोटी, कपड़ा और मकान देने की दिशा में सकारात्मक पहल होगी. परंतु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. जो कुछ भी हुआ है. वह उम्मीद के अनुरूप नहीं है. 


झारखंड वन एवं खनिज संपदा से भरा पूरा प्रदेश है. यह जंगलों से पैदावार पर झारखंड क्षेत्र में कुटीर उद्योग लगाए जा सकते हैं. वनोत्पाद कटहल, नीम,बेर, सरीफा, आम,इमली, महुआ, चिरंची, पपीता, और काजू जैसे फलों पर आधारित उद्योग लगाकर लोगों को नियोजन देकर उनकी आर्थिक अर्थव्यवस्था  सुधार किया जा सकता है. 

रांची विश्वविद्यालय  मानव शास्त्र विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ करमा उरांव झारखंड के आदिवासी के अर्थव्यवस्था के संदर्भ में कहते हैं, " आदिवासियों की आर्थिक अर्थव्यवस्था पूरी तरह कृषि पर निर्भर है, सरकार सीएनटी एक्ट में बदलाव कर आदिवासियों की जमीन को कमर्शियल बनाने की तैयारी कर रही है, यह जमीन पूंजीपतियों को दी जाएगी, इससे आदिवासी समाज के सामने आर्थिक संकट खड़ा हो जाएगा" 

दूसरे पक्ष यह भी है कि आदिवासी समाज को मुख्यधारा से जोड़ने की चुनौती है. यह बात भी जग जाहिर है कि आदिवासी जल जंगल जमीन के बिना उनके अस्तित्व को खतरा है. इसके बिना इनका वजूद ही समाप्त हो जाएगा. संविधानिक प्रावधानों के मुताबिक इस क्षेत्र में आदिवासियों के विकास के लिए एवं उनकी सुरक्षा के लिए विशेष रुप से महामहिम राज्यपाल को जिम्मेदारी सौंपी गई है. महामहिम राज्यपाल अपने विशेष संवैधानिक अधिकारों का प्रयोग करते हुए ऐसे दुर्गम राज्यों की सर्वांगीण विकास के लिए प्रारुप नीति बनाकर महामहिम राष्ट्रपति को लिखा सुझाव उपलब्ध करा सकते हैं. 

कालीदास मुर्मू, संपादक आदिवासी परिचर्चा ।

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