24 सितंबर 1996 राष्ट्रपति ने अनुसूचित क्षेत्रों के लिए पंचायतों के नए कानून को मंजूरी दे दी थी. इसके साथ ही पंचायतों के बारे में संविधान के भाग 9 में दी गई व्यवस्था में महत्वपूर्ण फेरबदल के साथ अनुसूचित क्षेत्रों में लागू हो गई थी. हमारे देश का यह पहला कानून है, जिसमें यह साफ तौर से माना गया है कि आम जान सर्व अधिकार संपन्न है और ग्राम सभा के रूप में गांव समाज का स्थान देश में सबसे ऊंचा है.
समाज और परंपरा की वसूलने मानने में कभी किसी को हिचक नहीं होती हैं. इस मसले में बड़ी-बड़ी तकरीरों ही नहीं हुई. वरन संविधान में भी उनका आदर का जिक्र हुआ है. परंतु उसको व्यवहार रूप देने में कहीं ना कहीं कुछ अटकता रहा है. सच तो यह है कि संविधान बनने के बाद हमारे देश में आम लोगों के साथ ही सबसे बड़ा धोखा हो गया. बात हुई थी हर गांव में " गांव गणरा " की स्थापना की. मगर बन गई पंच सरपंचों वाली चुने हुए प्रतिनिधियों की सरकारी पंचायतें. इस सरकारी पंचायतों का गांव की अपनी असली पहचान जिसमें गांव के सब लोग शामिल होते हैं. इसलिए नए कानून में इस बात का ध्यान रखा गया है कि ऐसा ना हो कि सब कुछ कह देने के बाद बाद जैसी की तैसी बनी रहे, ढाक के तीन पात जैसी. इस कानून में बात गांव से शुरू हुई है. ग्रामसभा सबसे ऊंची है. इस कानून में यह बात साफ तौर से कहीं गई है,कि संविधान की धारा-4घ के तहत प्रत्येक ग्राम सभा की परंपरा, उनकी सांस्कृतिक पहचान, सामुदायिक संपदा और विवादों को निपटाने की परंपरागत व्यवस्था को बनाए रखने और उनके मुताबिक काम का जलाने के लिए सक्षम होगी. किसी समाज की परंपरा और संस्कृति की पहचान उसकी जीवन - वायु है. उसको बनाए रखना किसी भी जीवंत समाज का सहज और स्वाभाविक गुण- धर्म है. अपना परंपरा और अस्मिता की रक्षा के लिए गांव समाज सक्षम है. अपना परंपरा और अस्मिता रक्षा के लिए गांव सक्षम है. इस बात के संविधान में प्रतिष्ठित हो जाने के बाद कहने को बचा ही क्या रहता है?
इसीलिए इसके बाद वैसे तो और कोई बात कहने की जरूरत ही नहीं थी. परंतु फिर भी कुछ और बातों का खुलासा जरूरी था. देखने की बात यह है कि ग्राम सभा की सक्षमता वाले इसी प्रावधान में समुदायिक संपदा को भी शामिल किया गया है. इसका विशेष महत्व है. आदिवासी समाज की अस्मिता उसके रहवास से अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है. उसके रहवास में जो कुछ है, जल -जंगल, और जमीन वही उसके जीवन और अस्मिता की बुनियादी है. इस सब को मिलाकर ही उसकी समुदायिक संपदा अर्थ पूर्ण रूप में उसके अस्तित्व का आधार बन जाती है. इसीलिए समुदायिक संपदा पर समाज के अधिकार को उसकी सक्षमता में शामिल करना एक निर्णायक तत्व है. उसके विना स्वाशासी व्यवस्था अधूरी ही रह जाती है.
संकलन: कालीदास मुर्मू संपादक आदिवासी परिचर्चा।
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