सरना धर्म आदिवासियों का बहुत ही प्राचीन धर्म है. आदि काल में जब पिलचु ने मारांङ बुरु के नाम से झारदा: तापाङ दा: चोडोर किया था. उस समय से ही सरना धर्म का इस धरती पर स्थापित हो गया. कालांतर जब आदिवासी झोपड़ी या मिट्टी के पक्का मकान बनाने लगे और समूह के साथ टोला या गांव बसाने लगे,तब घर के भीतर मारांङ बुरु की पूजा होने लगी. तथा गांव के बाहर सामुहिक रुप से जाहेरथान में पूजा-अर्चना शुरू किया गया.
सरना का अर्थ होता है सरि-ना: अर्थात सत्य ही। सरना धर्म सत्य पर आधारित दर्शन है. सनातन धर्म में हित की प्रधानता है, इस्लाम में यकीन की प्रधानता है. इसाई धर्म में प्रार्थना की प्रधानता है. बौध धर्म में करुणा की प्रधानता है. जैन धर्म अहिंसा की प्रधानता है. उसी तरह सरना धर्म में सत्य की प्रधानता है. सरना धर्मावलंबियों प्रकृति पूजक है. वे अदृश्य प्रकृति शक्ति की उपासना करते हैं. सरना धर्मावलंबियों सत्य बोलते हैं. सत्य ही सुनना पसंद करते हैं. सत्य आचरण करते हैं. और सत्य का साथ देते हैं.
लौहयुग के आरंभिक काल में सरना धर्मावलंबियों अपने जाहेरथान स्थापना विधि पूर्वक करते थे. गांव का मांझी बाबा तीर मारकर उस स्थान को चिन्हित करता था. लेगदा लामा, पेटेर बाड़े,लेपेज तिरिल,खोदे मातकोम और एरे आतना: ऐसे स्थान हैं, जहां जाहेरथान बनने के बाद अशुभ लक्षण प्रकट हुए. अंत में सरि सारजोम वृक्ष के नीचे जो जाहेरथान बनाया गया और शुभ ही शुभ परिणाम मिला. पूर्वज कहते हैं,कि सरि सारजोम वृक्ष के नीचे जो जाहेरथान सबसे पहले बनाया गया था वह " जुग जाहेरगाढ़" के नाम से प्रसिद्ध है. " जुग जाहेरगाढ़" वर्तमान में झारखंड के गिरिडीह जिला के पारसनाथ पहाड़ में स्थित है, यहां संतालों के ईष्टतम देवता " मरंगबुरू" स्वयं विराजमान हैं.
जुग जाहेरगाढ़/ जाहेर मारांङ बुरु ( पारसनाथ पर्वत) में लगभग 1200 मीटर की ऊंचाई में " जुग जाहेरगाढ़" अवस्थित है. यही हम खेरलाड़ वंशज संताल का प्रथम तथा सबसे प्रमुख जाहेरथान हैं, जिससे अब संतालों का प्राचीनतम तीर्थ स्थल माना गया है. जुग जाहेर में दो प्रमुख पर्व बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है:-
क) बाहा पर्व :- फाल्गुन महीने के शुक्ल पक्ष पंचमी को यह बहा परब बड़ी धूमधाम के साथ मनाया जाता है. सरना धर्मावलंबियों के लोग प्रकृति के इस त्योहार में चतुर्थ को ही श्रद्धालुओं पारसनाथ पर्वत पर चढ़ते हैं. पंचमी को तड़के स्नान कर मरांग बुरु की पूजा अर्चना करते हुए हाथ में फूल ग्रहण कर प्रसाद लेते हैं. और पहाड़ के नीचे स्थित मधुबन में बाहा नाच गान में शामिल होते हैं. इस त्यौहार में लाखों की संख्या में भीड़ उमड़ती है.
ख) शिकार (सेन्दरा पराव) पर्व:- प्रत्येक वर्ष वैशाख पूर्णिमा से 3 दिन तक संतालों द्वारा शिकार पर्व मनाया जाता है. जिससे संताली में " सेन्दरा" कहा जाता है. दिन में सामुहिक रुप से पारसनाथ पर्वत में जानवर एवं पक्षियों का शिकार किया जाता है. तथा रात में लॉ वीर ( उच्चतम न्यायालय) का आयोजन कर निचले स्तर के अन- सुलझे मामले का निपटारा यहां किया जाता है.
पारसनाथ मारांङ बुरु का इतिहास:- बीसवीं सदी के प्रारंभिक काल में जैनियों ने संतालों के प्रथागत शिकार के विरुद्ध न्यायिक आयुक्त के पास अपील किया कि पारसनाथ पर्वत पर शिकार बंद हो. न्यायिक आयुक्त ने उस अपील को खारिज कर दिया. हाईकोर्ट में भी इस अपील रदद को कर दिया था. यह केस प्रीवि कौंसिल तक गया जहां फैसला सुनाया गया कि पारसनाथ पर्वत पर शिकार करना संतालों का प्रधागत अधिकार है. मारांङ बुरु के आशीर्वाद स्वरुप हम संतालों को यह वरदान मिला. फिर 1934 में भी जैनियों ने शिकार पर्व में बाधा डालने की कोशिश की. उन्होंने न्यायालय में अपील किया. लेकिन तत्कालीन पारगाना हेमलाल मुर्मू की मदद से उच्च न्यायालय में संतालो के पक्ष में फैसला हुआ और शिकार जारी रहा. 1982 मैं भी मुख्य वन रक्षक पदाधिकारी ने पारसनाथ पर्वत में शिकार को रोकने का प्रयास किया था. किंतु वे इस कार्य सफलता नहीं हो पाए. 2001 में भी जैनियों ने बाहा पर्व " जुग जाहेरगाढ़" में न हो सके इसके लिए काफी हांगमा किया. परंतु मारांग बुरु और जाहेर आयो के असीम कृपादृष्टि से बाहा पर्व शांति तरीके से सुसंपन्न हुआ. सभी प्रकार विध्न- बाधाओं के बावजूद दिसोम मांझी अजय टुडू के अगुवाई में हरेक बर्ष बाहा पर्व और शिकार का आयोजन धूमधाम से पारसनाथ पर्वत के " जुग जाहेर" में होता है और आगे भी होता रहेगा.
संकलन:- कालीदास मुर्मू, संपादक आदिवासी परिचर्चा
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