दिउड़ी से मिनिसोटा विश्वविद्यालय तक सफर करने वाले झारखंड आन्दोलन के बौद्धिक प्रोणेत पद्म श्री डॉ रामदयाल मुंडा जी का संघर्षगाथा


तत्कालीन ब्रिटिश काल में राँची-जमशेदपुर मुख्य मार्ग से तमाड़ के निकट चार-पाँच घर का एक छोटा सा दुर्गम गाँव था दिऊड़ी.  उस दौर में सिर्फ दिरीओड़ा यानि दिऊड़ी, देवीगुड़ी ही झाड़ियों के बीच पत्थरों की संरचना थी। बाकी सभी घर माटी की दीवार और पुआल की छत वाली थी. दिऊड़ी गाँव के पुआल घर में ही बहुत रसिक एवं संपन्न व्यक्ति था. जिसके तीन पुत्र थे. बड़े पुत्र ने खूँटी और तमाड़ थाना के सीमावर्ती क्षेत्र के सूदूर जंगल के बीच, पहाड़ की तराई में बसे रांगरोंग गाँव में ससुराल किया। मुण्डा लोग शादी के बाद स्त्रियों को गाँव के नाम से पुकारते हैं. इसलिए उस स्त्री का नाम मुण्डा प्रथानुसार "रांगरोंग"रखे गये थे. दिऊड़ी गाँव का नाम शायद उस गाँव का दिरीओड़ा यानि देवीगुड़ी से दिऊड़ी हुआ.

देवीगुड़ी में सिर्फ साल में एक बार ग्राम पूजा हुआ करते थे. भूमिज मुण्डाओं की एक प्रथा थी. रोज शाम को 5 बजे आँगन की तुलसी मठ में एक माटी की दीया जलाकर, सिङबोंगा और पूरखों की स्तुति के बाद शंख बजाने का रिवाज भी था.रांगरोंग भी अपनी सास से सीख कर, इस विधान का अनुपालन करती थीं. कुछ दिन उपरांत वह झाड़ियों से घिरी हुई दिऊड़ी के देवीगुड़ी में भी रोज शाम को एक दीया जलाती थीं.चन्द महीने उपरांत वह गर्भवती हो गयी। लेकिन उसने सिङबोंगा की सुन्दर उपहार को देवीगुड़ी में रोज शाम को दीया जलाने का ही प्रतिफल मान ली. नौ महीने बाद 23 अगस्त 1939 को रांगरोंग के गर्भ से एक नर शिशु जन्म लिया. फिर नौवाँ दिन उस पुत्र का नाम पिता ने "रामदयाल" रख दिया.

 प्रारम्भिक शिक्षा :-  रामदयाल जब सात साल का था तो उसके पिता ने तमाड़ के निकट लुथरन स्कूल अमलेसा यानि चर्च स्कूल में भर्ती कर दिये थे. यहां प्रारम्भिक कक्षाओं की शिक्षा पुरी करने के पश्चात फिर हाई स्कूल की पढ़ाई के लिए 1953 ई. में वह हाईर सेकेंडरी स्कूल खूँटी में नामांकन कराया गया और विद्यालय के  ठक्कर बाप्पा छात्रवास में रहकर पढ़ाई पुरी की.

 उच्च शिक्षा के लिए रांची प्रस्थान:- सन् 1957 ई. में हाईर सेकेंड्री पास करने के बाद रामदयाल मुण्डा राँची चले गये गए.यहां बीए पास करने के बाद  सन् 1963 ई. में रामदयाल मुण्डा ने राँची विश्वविद्यालय से एमए पुरी की. इस दौरान उन्होंने  दो महत्वपूर्ण मुण्डा लोक  साहित्य पर आधारित पुस्तक "बाँसूरी बज रही" (रुतु सड़ितन) एवं "मुण्डाओं की लोक कथाएँ" का पण्डुलिपि तैयार कर लिया था. जो सन् 1968 में बाँसूरी बज रही (रुतु सड़ितन) और मुण्डाओं की लोक कथाएँ, जैसे प्रसिद्ध दो पुस्तकों का प्रकाशन गुरु जगदीश चन्द्र त्रिगुणायत और बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना के सौजन्य से प्रकाशित किया गया था.

 उच्च एवं शोध कार्य के लिए अमेरिका का प्रस्थान:-  रांची विश्वविद्यालय में 1963 ई. में एमए की  डिग्री प्राप्त कर  उच्च शिक्षा एवं शोध कार्य  के लिए अमेरिका के शिकागो चले गये और सन् 1968 ई. में भाषा विज्ञान में पीएचडी की डिग्री हासिल किए. सन्   1968 में डॉ० रामदयाल मुण्डा दोहरी खुशी मिली पहली अमेरिका से पीएचडी की डिग्री और उनके द संकलित दो पुस्तकों का प्रकाशन की खुशी में खूँटी आये एवं अपने गुरु जगदीश चन्द्र त्रिगुणायत और तमाम मुण्डा साथियों से भेंट किए. उस वह खूँटी अनुमण्डल के छात्रों के लिए चर्चा एवं आकर्षण का केन्द्र बन गए था.

अमेरिका के विश्वविद्यालय में बने  प्रोफेसर:- सन् 1971 में शोध कार्य पूरा  किए. उनकी विलक्षण प्रतिभा एवं मेधावी के आधार पर मिनीसोटा विश्वविद्यालय में एशोसियेट प्रोफ़ेसर पर नियुक्त कर दिया गया. 

 हेजेल एन्न लुत्ज प्रेम संबंध एवं शादी :-  डां. रामदयाल मुंडा  मिनीसोटा विश्वविद्यालय में रहते हुए एक सुन्दर अमेरिकन युवती के  व्यक्तित्व एवं मधुर वाणी पर फिदा हो गए. उस अमेरिकन गोरी युवती का नाम था- हेजेल एन्न लुत्ज। वह भी विशिष्ट शोध अध्ययन से जुड़ी हूई थीं.  शोध कार्य को पूरा करने के लिए भारत आना चाहती थीं. जब वह भारत आयीं तो मुण्डाओं के धर्मसंस्कृति से इतना प्रभावित हुई कि मुण्डारी बोली और बाँसूरी बजाना भी ढंग से सीख गयीं थीं. उसके बाद हेजेल एन्न लुत्ज ने प्रेम और शादी करने की निर्णय ली. 14 दिसम्बर 1972 को दोनों ने प्रेम का संबंध को शादी का बंधन में बदल दिए.  


स्वदेश लौटे, रांची विश्वविद्यालय में बने प्रोसेसर एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग की स्थापना:- 1982 ई. में वह हमेशा के लिए राँची आ आये और फिर मुण्डा संस्कृति को दिल से लगाया. सन् 1982 में ही वह कुमार सुरेश सिंह, तत्कालीन कुलपति राँची विश्वविद्यालय के सहयोग से राँची विशवविद्यालय में प्रोफेसर बने. फिर जैसे ही उसकी लोकप्रियता बढ़ी, राँची विश्वविद्यालय में " क्षेत्रीय भाषा विभाग"की स्थापना किए. मुण्डा युवाओं से मिलकर राँची विशवविद्यालय परिसर में एक आखड़ा का निर्माण हुआ. डा० रामदयाल मुण्डा ने भी युवाओं को प्रेरित करने के लिए ,मरकिन धोती पहनकर मिट्टी ढोए थे. सन् 1985-1986 तक राँची विश्वविद्यालय के प्रति कुलपति थे. तथा सन् 1986-1988 तक रांची विश्वविद्यालय के कुलपति बना दिए गए. कुलपति रहने के दौरान वे मुण्डा संस्कृति और लोकनृत्य से जुड़े रहे। रोज सुबह 5 बजे बाँसूरी की मधुर धुन से अपने पड़ोसियों को जगाते थे. सुबह-सुबह राँची का निवास क्षेत्र संगीतमय हो जाता था. 

 मुंडा समाज से दुसरी शादी एवं दांपत्य जीवन:-  सन् 1988 में  अमेरिकन पत्नी के निसंतान होने और दूर-दूर रहने के कारण दोनों के बीच  तलाक हो गया. तब मुण्डा समाज के विशिष्ट लोगों की पहल से उनकी दुसरी शादी अमिता मानकी से हुई. बहुत जल्द ही पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई. पुत्र का नाम विशुद्ध मुण्डा में रखे गुंजल इकिर मुण्डा।

सन् 1987 रुस में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का लोकनृत्य एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम नेतृत्व:- तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के अगुवाई में डा० रामदयाल मुण्डा ने अपनी मुण्डा संस्कृति की विशिष्ट कला पाईका नृत्य को अन्तर्राष्ट्रीय मंच देने के लिए कलाकारों को सोवियत संघ,रुस ले गये थे. पाईका नृत्य दल में मारंगहादा का उस्ताद गांगु मुण्डा का लोक नृत्य दल और रांगरोंग का उस्ताद पाण्डेया मुण्डा नृत्य दल में थे। ढाँक,नगाड़ा, शाहनाई और भेंर बजाने वाले दल में मारंगहादा और रांगरोंग क्षेत्र के चयनित घांसी समुदाय के लोग ही थे. सहयोगी के रुप में गन्दुरा मुण्डा और सेलाय हस्सा जैसे मुण्डा रसिक लोक थे.

आज भी अत्यंत गरीब तबके से आने वाले *घांसी समुदाय* के लोग हँस कर ,दिल से सच्ची कहानी बताते हैं.कहते हैं, कि हमलोगों का जन्म सफल हो गया..!

हमारे घरों में चूहे पाईका नाचते हैं. यानि कि अन्नाज का एक दाना नहीं है. लेकिन खुशी का पक्ष यह है कि डा० रामदयाल मुण्डा की कृपा से, खुद भी हवाई जहाज में चढ़े और नगाड़ों को भी चढ़ाए..!हमलोग "मनोवा जोनोम जीदन" मतलब इस मानव जन्म में ही रुस और अमेरिका जैसे बड़े देशों का दर्शन किए. खुद को बहुत ही भाग्यशाली समझते हैं. डा० रामदयाल मुण्डा ने खूँटी के सभी कलाकारों को सोवियत संघ से सीधे, अमेरिका ले गये थे.


सिर्फ बांसूरी बजाने के आरोप लगे :- 1988 में एक साजिश के तहत राँची विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति डा० रामदयाल मुण्डा पर अरोप लगाए गये थे कि वह बाँसूरी बजाने में लीन रहते थे और राँची विश्वविद्यालय को भूल गये थे. शायद राँची विश्वविद्यालय के तमाम प्रोफेसर और कर्मचारियों को कुलपति का विदेश दौरा में जाने के कारण कुछ असहुलियत हुई होगी. मिलाजुला कर, इन्हीं कारणों से इस्तीफा भी देना पड़ा था. और बाद के दिनों में  लोकनृत्य एवं कला संस्कृति की प्रस्तुति के लिए सन्  1989 में चीन, जापान और फिलीपींस जैसे देशों का दौरा किए और इन देशों में अनेक पुरस्कारों और सम्मानों से सम्मानित किए गए. 

सन् 1989-1995 तक झारखण्ड बिषयक के सलाहकार बने:- तत्कालीन गृहमंत्री बुटा सिंह ने झारखंड आंदोलन के उग्र प्रभाव को देखते हुए  उन्होंने " झारखंड बिषयक समिति" गठन करने का  निर्देश  दिया. डां. रामदयाल मुंडा इस कमिटि में सलाहकार नियुक्त किए गए. झारखण्ड अलग प्रान्त की माँग भले माराङ गोमके जयपाल सिंह मुण्डा ने शुरु की थीं. लेकिन इस अन्दोलन को एन.ई. होरो ने एक नयी दिशा दी थी. फिर बाद के दिनों में  शिबू सोरेन ने विनोद बिहारी महतो एवं कामरेड अरुण कुमार राय के साथ झारखण्ड मुक्ति मोर्चा गठन कर,  एक संगठित आदिवासी एवं झारखंडी दल के रुप में उभरा. बाद के दिनों में डा० रामदयाल मुण्डा ने ही अलग झारखण्ड प्रान्त के लिए बौद्धिक लड़ाई लड़ी थीं. लम्बी संघर्ष एवं लड़ाई के बाद 15 नवंबर 2000 को भारतीय इतिहास में झारखंड राज्य का उदय हुआ.


डॉ. रामदयाल मुंडा का अंतिम सपना:- राँची के टैगोर हिल तराई पर एक ओपेन स्पेस थियेटर बनाने और हर आदिवासी गाँव में एक एक आखड़ा बनाने का सपना था. उसने यह बात राँची अपोलो अस्पताल के विस्तर पर भी, पत्रकारों को कही थीं कि काम का ताँता लगा हुआ है. आदिवासियों के लिए बहुत काम करना है. लेकिन अब अन्तिम समय आ गया है. गाँव-गाँव आखड़ा बनाने का सपना अधूरा रहा..!झारखंडियों को आदिवासियों को पद्मश्री डा० रामदयाल मुण्डा जैसे महान शिक्षाविद एवं लोकसंस्कृति के पुरोधा,बाँसूरी वादक सह- संगीतकार की सख्त जरूरत थी. लेकिन कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी से ग्रसित होने के कारण उनकी जीवन लीला 30 सितम्बर 2011 को समाप्त हो गयी. उनकी अंतिम वाणी थी- चे नाची_से_वांची..!।

 संकलन:- कालीदास मुर्मू, संपादक आदिवासी परिचर्चा।

Post a Comment

0 Comments