लिपि से ही मुखर होती हैं भाषा-सहित्य एवं संस्कृति


लिपि का शाब्दिक अर्थ होता है- लिखित या चित्रित करना. ध्वनियों को लिखने के लिए जिन चिन्हों का प्रयोग किया जाता है, वहीं लिपि कहलाती है. इतिहास में मानव के महान आविष्कारों में लिपि का स्थान सर्वोपरि है. मानव समाज जब ताम्रयुग में पहुंचता है, तब हम पहली बार लिपियों को जन्म लेते देखते हैं. सभ्य मानव समाज का सबसे बड़ा आविष्कार है लेखन-कला. आज हम अपने चारों ओर इतनी अधिक लिखित सामग्री देखते है कि यह सोचना भूल ही जाते हैं कि प्रारंभ में आदमी ने लिखना कैसे आरंभ किया होगा और लेखन का विकास कैसे हुआ होगा. 
मानव के विकास में अर्थात मानव - सभ्यता के विकास में,वाणी के बाद लेखन का ही सबसे अधिक महत्व है. अन्य पशुओं से आदमी को इसलिए श्रेष्ठ माना जाता है कि वह वाणी द्वारा अपने मनोभावों को व्यक्त कर सकता है. किंतु मानव का  बहुमुखी विकास इस वाणी को लिपिबद्ध करने की कला के कारण ही हुआ. मुंह से बोले गए शब्द या हाव-भावों से व्यक्त किए गए विचार चिरस्थायी नहीं रहते. दो या अधिक व्यक्तियों तक सीमित रहती है. भाषा का आधार ध्वनि है. भाषा श्रव्य या कर्ण गोचर होती है. अभी 19वीं शताब्दी के अंतिम दशकों तक बोली गई भाषा को स्थायी रूप देने के लिए उसे लिपिबद्ध करने के अलावा कोई दूसरा तरीका नहीं था. 
प्राचीन काल के मानव को अपने विचारों को सुरक्षित रखने के लिए लिपि का आविष्कार करना पड़ा था. इसलिए हम कह सकते हैं कि लिपि ऐसे प्रतीक-चिन्हों का संयोजन है, जिनके द्वारा श्रव्य भाषा को दृष्टिगोचर बनाया जाता है. सुनी या कहीं हुई बात केवल उसी समय और उसी स्थान पर उपयोगी होती है. किंतु लिपिबद्ध करने या विचार  या दिक और काल की सीमाओं को लांघ सकते हैं.  लिपि के बारे में यही सबसे महत्वपूर्ण बात है.  संसार की बहुत -सी लुप्तप्राय सभ्यताओं के बारे में आज हम इसीलिए बहुत कुछ जानते हैं,कि वे अपने बारे में बहुत-कुछ लिखा हुआ छोड़ गए हैं. 
भारत में लगभग छठी शताब्दी ई. पू. में अस्तित्व में आई ब्राह्मी लिपि ने भी बहुत -सी लिपियों को जन्म दिया है. भारत की सारी वर्तमान लिपि (अरबी-फारसी लिपि को छोड़कर) ब्राह्मी से ही विकसित हुई हैं. हिंदी भाषा की लिपि देवनागरी है. हिंदी के अलावा - संस्कृत, मराठी, कोंकणी,नेपाली आदि कई भाषाएं भी देवनागरी देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैं. इसी प्रकार ओल चिकि लिपि भी है,जो संताली भाषा की लिपि है. यह भाषा अत्यंत समृद्ध हैं. गुरु गोमके पंडित रघुनाथ मुर्मू द्वारा सृजित यह लिपि  केवल झारखंड राज्य तक सीमित नहीं है. यह देश के अन्य हिस्सों, राज्यों तथा विदेशों में भी बोली जाती है. जैसे- बंगाल, ओड़िशा, बिहार,असम एवं अण्डमान -निकोबार द्वीप समूह, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान आदि. इस समय करोड़ों लोग इस भाषा से परिचित हैं. देश एवं विदेश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में संताली भाषा से पीएचडी डिग्री एवं शोध-पत्रिका प्रकाशित की जा रही हैं. उच्च शिक्षा एवं शोध कार्य में लगे हुए युवाओं के लिए संताली भाषा में अपार  संभावनाएं हैं. संक्षेप में, विभिन्न भाषाओं की अपनी लिपि होनी चाहिए. भाषाओं के संरक्षण, संवर्धन एवं सुव्यवस्थित करने के दृष्टिकोण से भाषाओं की कृतियों का अपनी लिपि में अंतरित करना महत्वपूर्ण है. 

संकलन: कालीदास मुर्मू , संपादक आदिवासी परिचर्चा।

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