धारती आबा बिरसा मुंडा जन्म तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत में रांची-खूंटी के उलीहातू गांव में हुआ था . बिरसा मुंडा बचपन से ही साहसी और निर्भीक थे. इनकी प्रारंभिक पढ़ाई मिशनरियों स्कूल से हुई. फिर उच्च शिक्षा के लिए चाईबासा चलें गए. वे अन्याय को सहन नहीं कर पाते थे. उसके एक प्रसंग हैं, चाईबासा में जर्मन मिशन स्कूल में पढ़ाई के दौरान एक विदेशी शिक्षक ने मुंडा सरदारों के खिलाफ अप्रिय बातें कह दी थीं, तो बिरसा उन पर अत्यंत नाराज हो गए थे. उन्होंने इसकी कड़ी निंदा करते हुए कह दिया था कि मुंडा, उरांव,व कोल कभी चोरी नहीं करते, बल्कि इनको बाहरी लोगों ने ठगा और लूटा है. उन्होंने अंग्रेजों के अलावा महाजनों और जमींदारों को ठग बताते हुए ऐसे लोगों का कड़ा विरोध किया था. इस घटना के बाद बिरसा ने स्कूल ही छोड़ दिया था.
भगवान बिरसा ने बिरसाईत धर्म का प्रचार-प्रसार किया. उन्होंने लोगों से इसका पालन करने की अपील थी. जब वे अपने धर्म की प्रचार-प्रसार कर रहे थे तब उनकी उम्र महज बीस साल थी. इतनी कम उम्र में ही उनके धर्म बड़े स्तर से प्रचार हुआ था. जल्दी ही लाखों लोग उनके अनुयाई बन गये थे.
बिरसा को एक धर्म गुरु के तौर पर लाखों लोगों ने अपनाया था. उनके अनुयायी उनकी कही गयी बातों को पूरे मनोयोग से मानते थे. उनके धर्मावलंबियों की संख्या खूंटी के तोरपा, कर्रा, मुरहु, तमाड़, सिमडेगा, के कोलेबिरा, बानो और रांची के बेड़ों और लापुंग जैसी जगहों पर बड़ी संख्या में हैं. उन्होंने लोगों को सादगी का पाठ पढ़ाया और आडंबरों से दूर रहना सिखाया था. बिरसा मानते थे कि की सारी नाकारात्मक बातें आदिवासीयों को भीतर से कमजोर और असहाय बनाती हैं. इसलिए उन्होंने अपने शिष्यों और अनुयायियों से कहा कि वे ऐसी चीजें का परित्याग कर दें,जो उनके व्यक्तित्व का निर्माण नहीं करती है. व्यक्तिगत स्वाच्छता और शुद्धता पर उन्होंने जोर दिया था.
संकलन: कालीदास मुर्मू संपादक आदिवासी परिचर्चा।
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