आदिवासी हितों के लिए बने पेसा कानून झारखंड में क्या नहीं लागू हो पा रही है


इन दिनों झारखंड में पेसा कानून को लागू करने को लेकर राज्य में सरकार और सामाजिक संगठनों के बीच खींचतान चल रही हैं. बता दें कि हाईकोर्ट ने झारखंड में पेसा एक्ट पर सरकार के उदासीन रवैये पर नाराजगी जताई है. साथ ही राज्य सरकार को दो माह में पेसा नियमावली लागू करने का निर्देश दिया है. एक्टिंग चीफ जस्टिस सुजीत नारायण प्रसाद और जस्टिस एके राय की अदालत ने इससे जुड़ी कई जनहित याचिकाओं पर एक साथ सुनवाई करते हुए यह आदेश दिया था.

कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में कहा कि पेसा एक्ट बने 28 साल हो गए. आदिवासी हितों के लिए झारखंड बने हुए 24 साल हो गए, पर नियमावली लागू नहीं हुई, जो दुर्भाग्यपूर्ण है. यह मामला कोर्ट में वर्ष 2021 से लंबित  हैं. इस दौरान अदालत ने कई निर्देश दिए, पर सरकार ने पेसा नियमावली लागू नहीं की. परन्तु सरकार ने पेसा  कानून  के स्वरुप झारखंड पंचायत राज अधिनियम बनाकर  लागू करने की बात कर रही है. इससे  लेकर राज्य सरकार और सामाजिक  संगठनों के बीच खींचतान जारी है. अब सवाल यह उठता है कि सरकार को पेसा कानून लागू को करने में अड़चन आ रही है . आइए इस मुद्दे को सरल शब्दों में जानने का प्रयास करेंगे. 

"झारखंड पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्र पर विस्तार) नियमावली 2024"   और उसमें "अधिनियम" के अर्थ से संबंधित है। इस संदर्भ में झारखंड सरकार की मंशा और नियमावली के कानूनी प्रावधानों के बीच का अंतर स्पष्ट रूप से झलकता है इसे मैं अपने स्तर से जो समझ पा रहा हूं जिसका क्रमवार विश्लेषण करने का प्रयास कर रहा हूं.

1. "अधिनियम" का अर्थ और संदर्भ:

आपने सवाल उठाया है कि झारखंड की नियमावली में "अधिनियम" का अर्थ "झारखंड पंचायत राज अधिनियम 2001" क्यों दिया गया है जबकि "पेसा कानून 1996" होना चाहिए था.

पेसा कानून 1996 संविधान की 73वीं संशोधन अधिनियम के तहत अनुसूचित क्षेत्रों में स्वशासन के लिए विशेष प्रावधान करता है.

झारखंड पंचायत राज अधिनियम 2001, राज्य सरकार द्वारा राज्य की पंचायतों के कार्य और अधिकारों को विनियमित करने के लिए बनाया गया था.

छत्तीसगढ़ जैसे अन्य राज्यों ने अपनी नियमावलियों में "अधिनियम" का संदर्भ सीधे "पेसा कानून 1996" से दिया है, जो इस कानून की मूल भावना के अनुरूप है.

झारखंड की नियमावली में "झारखंड पंचायत राज अधिनियम 2001" का संदर्भ देने से ऐसा प्रतीत होता है कि पेसा की प्राथमिकता को कमजोर किया जा रहा है, क्योंकि यह राज्य के कानून को केंद्रीय कानून से अधिक प्राथमिकता देता है.

2. कानूनी और प्रशासनिक दृष्टिकोण:

यदि झारखंड सरकार सचमुच पेसा कानून को लागू करना चाहती है, तो नियमावली में "अधिनियम" का सीधा उल्लेख पेसा कानून 1996 के रूप में होना चाहिए।

"झारखंड पंचायत राज अधिनियम 2001" का उल्लेख यह संकेत देता है कि राज्य सरकार ने केंद्रीय कानून (पेसा) के बजाय अपने कानून को आधार बनाया है.

यह संशय पैदा करता है कि क्या झारखंड सरकार पेसा को पूरी तरह लागू करने के प्रति प्रतिबद्ध है या इसे झारखंड पंचायत राज अधिनियम के दायरे में सीमित करना चाहती है.

3. विद्वानों का दृष्टिकोण:

जो विद्वान झारखंड सरकार की नियमावली की सराहना कर रहे हैं, उन्हें इस बिंदु पर विचार करना चाहिए कि यदि सरकार पेसा कानून लागू करने के लिए प्रतिबद्ध है, तो नियमावली में केंद्रीय कानून का स्पष्ट और प्राथमिक उल्लेख क्यों नहीं है.

इन विद्वानों को यह भी समझना चाहिए कि नियमावली में शब्दों का चयन कानूनी और प्रशासनिक क्रियान्वयन में बड़ा फर्क डालता है.

4. छत्तीसगढ़ और झारखंड का तुलनात्मक अध्ययन :

छत्तीसगढ़ ने अपनी नियमावली में "अधिनियम" का स्पष्ट संदर्भ पेसा कानून 1996 से दिया है, जिससे वहां इस कानून को लागू करने की मंशा साफ दिखती है.

 संक्षेप में यह निष्कर्ष  निकलता है कि झारखंड का इस मामले में झुकाव राज्य कानून की ओर होने से पेसा के मूल उद्देश्यों पर संदेह उत्पन्न होता है. झारखंड सरकार की नियमावली में "अधिनियम" के अर्थ में पेसा कानून 1996 का स्पष्ट उल्लेख न होना, इसके क्रियान्वयन में बाधा उत्पन्न कर सकता है. यह झारखंड के विद्वानों और नीति-निर्माताओं को अपनी मंशा और कार्यप्रणाली पर पुनर्विचार करने के लिए प्रेरित करता है. इस मुद्दे पर व्यापक चर्चा और जागरूकता की आवश्यकता है. यह जरूरी है कि पेसा कानून को उसकी मूल भावना के अनुरुप लागू किया जाए. 

संकलन: कालीदास मुर्मू, संपादक आदिवासी परिचर्चा।

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