पहला दिन -गोड टांडी में जाहेर एरा का आह्वान किया जाता है तथा रात में प्रत्येक गृहस्थ के युवक-युवतियाँ गो पूजन करते हैं.
दूसरा दिन-गोहल पूजा की जाती है तथा गौशाला को अल्पना द्वारा सजाकर गाय को नहलाकर उसके शरीर को रंगा जाता है. गाय, बैल, भैंस के सींग पर तेल व सिंदूर लगाकर उसके गले में फूलों की माला पहनायी जाती है.
तीसरा दिन -पशुओं को धान की बाली एवं मालाओं से सजाकर खूंटा जाता है.
चौथा दिन - युवक-युवतियाँ गाँव से घर -घर जाकर चावल, दाल, नमक व मसाला आदि मांगकर जमा करते हैं.
पांचवाँ दिन - गाँव से एकत्रित चावल, दाल, आदि से खिचड़ी बनाया जाता है जिसे गाँव के लोग मिलकर साथ में खाते हैं. सोहराय पर्व, अक्टूबर, नवंबर, या जनवरी के महीने में मनाया जाता है. यह त्योहार, साल की मुख्य चावल की फसल कटने के बाद मनाया जाता है. सोहराय पर्व, संथाल जनजाति का मुख्य त्योहार है. यह पर्व, मवेशियों के सम्मान में मनाया जाता है. सोहराय पर्व से जुड़ी कुछ खास बातेंः
सोहराय पर्व को बंधना पर्व भी कहा जाता है.
सोहराय पर्व, प्रकृति पर्व भी है.
सोहराय पर्व को मनाने का मकसद, गाय और बैलों को खुश करना और उनकी मेहनत का सम्मान करना होता है. सोहराय पर्व के दौरान, घरों की सफ़ाई की जाती है और उन्हें सोहराई भित्ति चित्रों से सजाया जाता है.
सोहराय पर्व के दौरान, मवेशियों को नहलाकर पूजा की जाती है. सोहराय पर्व के दौरान, कांचे दीये में चावल को कूटकर चुन्नी बनाई जाती है. सोहराय पर्व के दौरान, घर के दरवाज़े पर दीपक जलाया जाता है. सोहराय पर्व के दौरान, मांदर की थाप से वातावरण गुंजता रहता है.
सोहराय पर्व के दौरान, भाई अपनी बहन को निमंत्रण देता है और बहन घर आकर सोहराय पर्व मानाती है.
संथाल परगना में सोहराय पर्व जनवरी में मनाया जाता है, क्योंकि इसके पीछे ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ संघर्ष की कहानी है. 30 जून, 1855 को सिदो-कान्हू के नेतृत्व में संताल हूल विद्रोह हुआ था. इस विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेज़ सरकार ने धारा 144 लागू किया था और मार्शल लॉ लगाया था. यह मार्शल लॉ जनवरी 1856 में हटाया गया था. इसके बाद लोगों ने सोहराय मनाया था. सोहराय के गीतों में भी अंग्रेज़ों से आज़ादी का ज़िक्र है.
संकलन: बोध बोदरा, उप-संपादक, आदिवासी परिचर्चा।
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